पत्नी पर बिना साक्ष्य के व्यभिचार का आरोप मानसिक क्रूरता के बराबर: दिल्ली हाईकोर्ट ने भरण-पोषण आदेश को सही ठहराया

दिल्ली हाईकोर्ट ने भरण-पोषण से संबंधित फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि पत्नी पर बिना किसी साक्ष्य के व्यभिचार का आरोप लगाना स्वयं में मानसिक क्रूरता के बराबर है। न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की एकलपीठ ने पति की पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए कहा कि भरण-पोषण के आदेश में कोई त्रुटि नहीं है।

पृष्ठभूमि:

विवाह मार्च 2000 में हुआ था और इस दंपति के तीन संतानें हैं। पत्नी ने मार्च 2017 में पति द्वारा शराब के नशे में मारपीट करने का आरोप लगाते हुए थाना न्यू उस्मानपुर में शिकायत दर्ज कराई थी। इसके बाद दोनों अलग रहने लगे। बेटा पत्नी के साथ और दोनों बेटियाँ पति के साथ रहने लगीं।

पत्नी ने अप्रैल 2018 में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण के लिए याचिका दाखिल की। फैमिली कोर्ट ने 26 फरवरी 2024 को आदेश पारित करते हुए पति को ₹4,000 प्रतिमाह पत्नी को, तथा ₹2,000 प्रतिमाह पुत्र को (11 माह के लिए) देने का निर्देश दिया। साथ ही ₹10,000 मुकदमे के खर्च के रूप में देने का आदेश भी दिया गया।

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याची (पति) की दलीलें:

पति ने फैसले को चुनौती देते हुए आरोप लगाया कि पत्नी व्यभिचारपूर्ण संबंध में रह रही है और उसने उसे छोड़ दिया है, अतः उसे धारा 125 CrPC के अंतर्गत भरण-पोषण का अधिकार नहीं है। उन्होंने पत्नी की गवाही में विरोधाभासों का हवाला देते हुए क्रूरता के आरोपों को झूठा बताया।

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प्रति-उत्तरदाता (पत्नी) की दलीलें:

पत्नी की ओर से कहा गया कि व्यभिचार के आरोपों का कोई प्रमाण नहीं है। फैमिली कोर्ट ने न्यूनतम मजदूरी के आधार पर पति की आय का सही आकलन किया और पत्नी की आर्थिक निर्भरता को ध्यान में रखते हुए आदेश पारित किया गया है।

कोर्ट का विश्लेषण:

न्यायालय ने पाया कि पति द्वारा लगाए गए व्यभिचार के आरोप केवल सुझाव मात्र थे, जिन्हें पत्नी ने स्पष्ट रूप से नकारा और कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया। न्यायालय ने स्पष्ट कहा:

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“पत्नी पर बिना किसी साक्ष्य के व्यभिचार का आरोप लगाना स्वयं में मानसिक क्रूरता के बराबर है।”

कोर्ट ने यह भी दोहराया कि धारा 125 CrPC के अंतर्गत कार्यवाही संक्षिप्त प्रकृति की होती है जिसका उद्देश्य महिला और बच्चों को शीघ्र राहत प्रदान करना होता है। कोर्ट ने राजनेश बनाम नेहा [(2021) 2 SCC 324] तथा सुनीता कच्छवाहा बनाम अनिल कच्छवाहा [(2014) 16 SCC 715] जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी को केवल यह सिद्ध करना होता है कि पति ने उसे त्यागा है या उसके भरण-पोषण से इनकार किया है, न कि यह कि उस पर क्रूरता हुई।

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कोर्ट ने फैमिली कोर्ट द्वारा न्यूनतम वेतन के आधार पर पति की आय को ₹20,000 प्रतिमाह मानना उचित बताया, और यह भी माना कि पत्नी की कोई स्वतंत्र आय नहीं है। बेटे को केवल 11 महीने तक भरण-पोषण देने का आदेश इसलिए दिया गया क्योंकि वह याचिका दायर करने के 11 महीने बाद बालिग हो गया था।

निर्णय:

दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि फैमिली कोर्ट का आदेश विधिसम्मत है और इसमें हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है।

“यह याचिका निराधार पाई जाती है। अतः याचिका तथा लंबित आवेदन निरस्त किए जाते हैं।”

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