दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (एन.आई. एक्ट) की धारा 138 के तहत दायर पांच आपराधिक शिकायतों को रद्द कर दिया है।
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 482 के तहत दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने दो प्रमुख कारणों के आधार पर यह निर्णय दिया:
- एक निर्विवाद समझौता ज्ञापन (MOU) यह साबित करता है कि चेक किसी कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण (legally enforceable debt) के लिए नहीं, बल्कि पूरी तरह से “सुरक्षा” (Security) के तौर पर जारी किए गए थे।
- मामले में जारी किए गए समन आदेश प्रक्रियात्मक रूप से अमान्य थे, क्योंकि उन्हें एक ऐसी अदालत द्वारा अपनाया गया था जिसके पास मूल रूप से अधिकार क्षेत्र (jurisdiction) ही नहीं था।
यह याचिकाएं श्री साई सप्तगिरि स्पंज प्रा. लिमिटेड (याचिकाकर्ता) द्वारा M/s मैग्निफिको मिनरल्स प्रा. लिमिटेड (प्रतिवादी संख्या 2/शिकायतकर्ता) द्वारा शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए दायर की गई थीं।
मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता कंपनी, M/s मैग्निफिको मिनरल्स प्रा. लिमिटेड, का दावा था कि वह याचिकाकर्ता को स्टीम कोल की आपूर्ति करती थी। शिकायतकर्ता के खातों के अनुसार, 3 नवंबर 2014 तक, याचिकाकर्ता पर 1,91,72,159.51 रुपये की राशि बकाया थी।
आरोप है कि इसी देनदारी के निर्वहन के लिए, याचिकाकर्ता ने स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, बेल्लारी के कुल 1.75 करोड़ रुपये के पांच चेक जारी किए। जब शिकायतकर्ता ने इन चेकों को अपने बैंक (बैंक ऑफ इंडिया, नई दिल्ली) में प्रस्तुत किया, तो वे “STOP PAYMENT” (भुगतान रोकें) की टिप्पणी के साथ अनादरित (dishonour) हो गए।
इसके बाद, शिकायतकर्ता ने पहले बेल्लारी, कर्नाटक की एक अदालत में एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत पांच अलग-अलग शिकायतें दर्ज कराईं। बेल्लारी कोर्ट ने अप्रैल और मई 2015 में समन जारी किए।
हालांकि, 14 अक्टूबर 2015 को, बेल्लारी कोर्ट ने अधिकार क्षेत्र की कमी के कारण शिकायतों को यह निर्देश देते हुए वापस कर दिया कि उन्हें सक्षम अधिकार क्षेत्र वाली अदालत में प्रस्तुत किया जाए। इसके बाद, इन शिकायतों को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ की कार्यवाही को याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में चुनौती दी।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ता के तर्क:
याचिकाकर्ता ने कार्यवाही को रद्द करने के लिए मुख्य रूप से 6 मई 2014 के एक समझौता ज्ञापन (MOU) पर भरोसा किया। याचिकाकर्ता ने एमओयू के उस हिस्से को प्रस्तुत किया, जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा था:
“हम 1.75 करोड़ रुपये के निम्नलिखित चेक केवल सुरक्षा उद्देश्य (Security Purpose only) के लिए जारी कर रहे हैं। आप इन चेकों पर ऑडिट उद्देश्य, बैंकर को दिखाने और सुरक्षा उद्देश्य के लिए जोर दे रहे हैं, न कि बैंक में जमा करने के लिए। इसलिए ये चेक बैंक में क्लियरिंग के लिए प्रस्तुत करने के लिए नहीं हैं।”
इस आधार पर, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि ये चेक किसी देनदारी या ऋण के बदले नहीं, बल्कि केवल शिकायतकर्ता को अपने बैंकर को दिखाने के लिए सुरक्षा के तौर पर दिए गए थे। याचिकाकर्ता ने यह भी दलील दी कि दिल्ली की अदालत ने यांत्रिक रूप से (mechanically) बेल्लारी कोर्ट के उन समन आदेशों को अपना लिया, जो अधिकार क्षेत्र न होने के कारण पहले ही अमान्य हो चुके थे।
शिकायतकर्ता के तर्क:
शिकायतकर्ता (प्रतिवादी) ने तर्क दिया कि जब चेक जारी करने और उस पर हस्ताक्षर होने की बात से इनकार नहीं किया गया है, तो एन.आई. एक्ट की धारा 139 के तहत यह कानूनी धारणा (presumption) बनती है कि चेक एक कानूनी देनदारी के लिए जारी किए गए थे, जिसे केवल ट्रायल के दौरान ही खारिज किया जा सकता है।
शिकायतकर्ता ने भी उसी एमओयू के दूसरे पैराग्राफ का हवाला दिया, जिसमें लिखा था, “हम नई आपूर्ति के लिए एलसी (LC) जारी कर रहे हैं… और इसे पुरानी बकाया राशि के एवज में समायोजित (adjusted) किया जा सकता है।”
शिकायतकर्ता की दलील थी कि इस खंड ने उनकी “आकस्मिक देनदारी” (contingent liability) को “पक्का” (crystallised) कर दिया, जिससे सुरक्षा चेकों को भुनाना कानूनी रूप से सही हो गया। उन्होंने एचएमटी वॉचेस लिमिटेड बनाम एम.ए. आबिदा मामले का हवाला देते हुए कहा कि तथ्यों के विवादित सवालों (जैसे कि चेक सुरक्षा के लिए थे या देनदारी के लिए) का फैसला धारा 482 की कार्यवाही में नहीं किया जा सकता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने दोनों प्रमुख मुद्दों—चेकों की प्रवर्तनीयता (enforceability) और समन आदेशों की वैधता—का गहन विश्लेषण किया।
1. सुरक्षा चेक और कानूनी देनदारी पर:
अदालत ने एमओयू, जिस पर दोनों पक्षों ने भरोसा किया था, का बारीकी से विश्लेषण किया। अदालत ने पाया कि एमओयू का पहला पैराग्राF “स्पष्ट रूप से रिकॉर्ड करता है… चेक केवल सुरक्षा के तौर पर… और प्रस्तुति के लिए नहीं जारी किए गए थे।”
अदालत ने शिकायतकर्ता द्वारा एमओयू के दूसरे पैराग्राफ की व्याख्या को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा: “एमओयू के दूसरे पैराग्राफ को सादा पढ़ने से… यह स्पष्ट होता है कि उक्त क्लॉज केवल लेटर्स ऑफ क्रेडिट (LCs) से संबंधित है, जिन्हें पुरानी बकाया राशि के लिए समायोजित किया जा सकता था, न कि उन चेकों से।”
अदालत ने शिकायतकर्ता के इस दावे को “पूरी तरह से गलत” और “एमओयू की गलत व्याख्या” करार दिया।
धारा 482 के दायरे पर, अदालत ने माना कि आम तौर पर इस स्तर पर बचाव पक्ष के सबूतों पर विचार नहीं किया जाता। हालांकि, कोर्ट ने हर्षेंद्र कुमार डी. बनाम रेबातिलता कोली मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित अपवाद (exception) का हवाला दिया। इसके अनुसार, “यदि आरोपी द्वारा रखे गए दस्तावेज़… संदेह से परे हैं और प्रथम दृष्टया आरोपों को खारिज करते हैं, तो आरोपी को ट्रायल के लिए भेजना न्याय का उपहास (travesty of justice) होगा।”
हाईकोर्ट ने उक्त एमओयू को “त्रुटिहीन और उच्च गुणवत्ता वाला” (impeccable and sterling quality) दस्तावेज़ माना, जिस पर इस स्तर पर भरोसा किया जा सकता है।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला: “यह माना जाता है कि विचाराधीन चेक सुरक्षा चेक थे जो एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए दिए गए थे और उन्हें ऐसी देनदारी के लिए नहीं भुनाया जा सकता था जो शायद बाद में उत्पन्न हुई हो।”
2. समन आदेशों की वैधता पर:
अदालत ने याचिकाकर्ता की इस दलील में भी मेरिट पाया कि समन आदेश अमान्य थे। कोर्ट ने उल्लेख किया कि बेल्लारी कोर्ट ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले और एन.आई. एक्ट में 2015 के संशोधन के बाद शिकायतों को वापस कर दिया था।
हाईकोर्ट ने “कानून के स्थापित सिद्धांत” की पुष्टि की कि “एक बार जब कोई शिकायत (अधिकार क्षेत्र न होने के कारण) वापस कर दी जाती है, तो उस कोर्ट में की गई सभी कार्यवाही कानून की नजर में अमान्य (non-est) हो जाती है।”
अदालत ने पाया कि पटियाला हाउस कोर्ट ने “बेल्लारी के एलडी एमएम द्वारा पहले जारी किए गए समन को अपनाने में त्रुटि की, जबकि वे समन आदेश कानूनन अमान्य हो चुके थे।” अदालत ने कहा, “दिल्ली के एलडी एमएम द्वारा नए सिरे से समन आदेश जारी करने की आवश्यकता थी; हालांकि, इस अनिवार्य कदम को नजरअंदाज कर दिया गया।”
फैसला
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि चेक केवल सुरक्षा के लिए थे और किसी कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के लिए नहीं थे, हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि धारा 138 के तहत शिकायतें सुनवाई योग्य (maintainable) नहीं थीं।
इस चर्चा के आलोक में, हाईकोर्ट ने याचिकाओं को स्वीकार कर लिया और नई दिल्ली के मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित सभी पांचों शिकायत मामलों (CC No. 15098/2016, CC No. 15410/2016, CC No. 15373/2016, CC No. 1540/2019, और CC No. 1541/2019) को, साथ ही संबंधित समन आदेशों और सभी आगामी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया।




