दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि भाई-बहनों के प्रति एक पति की नैतिक जिम्मेदारियां, विशेषकर तब जब उनके पास भरण-पोषण के अन्य कानूनी विकल्प मौजूद हों, पत्नी और नाबालिग बच्चे के भरण-पोषण के उसके वैधानिक कर्तव्य (Statutory Duty) को कम नहीं कर सकती हैं। कोर्ट ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 125 के तहत पत्नी और बच्चे का अधिकार प्राथमिक है।
जस्टिस डॉ. स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ ने पत्नी को दिए गए अंतरिम भरण-पोषण को बरकरार रखते हुए नाबालिग बच्चे की राशि में मामूली संशोधन किया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि “स्वैच्छिक और भावनात्मक दायित्व, सीआरपीसी की धारा 125 के तहत उसके वैधानिक कर्तव्य को कम नहीं कर सकते।”
मामले की पृष्ठभूमि (Case Background)
हाईकोर्ट उस पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें पति (याचिकाकर्ता) ने साकेत कोर्ट, नई दिल्ली स्थित फैमिली कोर्ट के 16 जुलाई, 2024 के आदेश को चुनौती दी थी। फैमिली कोर्ट ने पति को अपनी पत्नी (प्रतिवादी संख्या 1) को 15,000 रुपये प्रति माह और अपनी नाबालिग बेटी (प्रतिवादी संख्या 2) को भी 15,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था।
दोनों पक्षों का विवाह 22 जून, 2018 को मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। धारा 125 सीआरपीसी के तहत दायर अपनी याचिका में पत्नी ने आरोप लगाया कि जहां वह वैवाहिक संबंधों में खुश थी, वहीं पति इस शादी से असंतुष्ट था क्योंकि वह भारी दहेज की उम्मीद कर रहा था। पत्नी ने कहा कि वह एक गृहिणी है, उसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है और वह अपनी साढ़े तीन साल की नाबालिग बेटी की देखभाल कर रही है।
पक्षों की दलीलें (Arguments)
याचिकाकर्ता-पति के वकील ने तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट ने इस तथ्य की अनदेखी की कि पत्नी एक उच्च शिक्षित महिला है और उसने बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर्स डिग्री (MBA) प्राप्त की है। वह नौकरी करने में पूरी तरह सक्षम है। पति की ओर से कहा गया कि इस तरह भरण-पोषण देना “आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के बजाय अनुचित निर्भरता को प्रोत्साहित करता है।”
पति ने अपनी वित्तीय देनदारियों का हवाला देते हुए कहा कि उस पर अपने बीमार और बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी है। इसके अलावा, उसे अपनी तलाकशुदा बहन और उसके बच्चे को भी नैतिक और भावनात्मक समर्थन देना होता है। उसने 6 लाख रुपये के पर्सनल लोन की ईएमआई (EMI) का भी जिक्र किया।
दूसरी ओर, प्रतिवादी-पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि उसके पास आय का कोई साधन नहीं है और वह चिकित्सकीय रूप से नौकरी करने के लिए फिट नहीं है। यह दलील दी गई कि केवल डिग्री होना वास्तविक रोजगार का विकल्प नहीं हो सकता, खासकर तब जब वह स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हो। पत्नी ने आरोप लगाया कि पति अच्छी कमाई करता है और जानबूझकर अपने वैधानिक कर्तव्य की उपेक्षा कर रहा है।
कोर्ट का विश्लेषण (Court’s Analysis)
जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने पक्षों की वित्तीय स्थिति और अंतरिम भरण-पोषण के कानूनी सिद्धांतों का विश्लेषण किया।
पत्नी की रोजगार क्षमता पर: कोर्ट ने कहा कि हालांकि पत्नी की शैक्षणिक योग्यता एक प्रासंगिक कारक हो सकती है, लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या वर्तमान में उसके पास खुद को बनाए रखने के लिए आय का स्वतंत्र और पर्याप्त स्रोत है।
“भले ही पत्नी की शैक्षणिक योग्यता या रोजगार क्षमता एक प्रासंगिक कारक हो सकती है, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या उसके पास वर्तमान में उस जीवन स्तर के अनुसार गरिमा के साथ खुद को बनाए रखने के लिए आय का स्वतंत्र और पर्याप्त स्रोत है, जिसका आनंद उसने वैवाहिक घर में लिया था।”
आश्रितों (माता-पिता और तलाकशुदा बहन) पर: कोर्ट ने नोट किया कि याचिकाकर्ता के पिता एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं और उन्हें 17,000 रुपये मासिक पेंशन मिलती है। कोर्ट ने माना कि ऐसे व्यक्ति को दिन-प्रतिदिन के भरण-पोषण के लिए बेटे पर आर्थिक रूप से आश्रित नहीं माना जा सकता।
तलाकशुदा बहन के संबंध में कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“तलाकशुदा होने के नाते, उसके पास सीआरपीसी या संबंधित पर्सनल लॉ के प्रावधानों के तहत अपने पूर्व पति से भरण-पोषण का दावा करने का कानूनी उपाय मौजूद है। इसलिए, याचिकाकर्ता द्वारा अपनी बहन को दी जाने वाली कोई भी सहायता नैतिक और पारिवारिक कर्तव्य के दायरे में आएगी, न कि धारा 125 सीआरपीसी के तहत लागू करने योग्य कानूनी निर्भरता (Legal Dependency) के दायरे में।”
लोन ईएमआई पर: सोदान सिंह रावत बनाम विपिनता और अभिनव कुमार बनाम स्वाति जैसे पिछले फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि स्वैच्छिक वित्तीय दायित्वों को अनिवार्य कटौती नहीं माना जा सकता।
“किसी संपत्ति के लिए याचिकाकर्ता द्वारा दी जा रही ईएमआई के आधार पर भरण-पोषण को नहीं रोका जा सकता है।”
आय का आकलन और वितरण: कोर्ट ने पति की 59,670 रुपये प्रति माह की स्वीकृत आय को स्वीकार किया। अनुरिता वोहरा बनाम संदीप वोहरा (2004) मामले में स्थापित ‘फैमिली रिसोर्स केक’ (Family Resource Cake) सिद्धांत पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने आय को चार हिस्सों में विभाजित किया: दो हिस्से कमाने वाले पति के लिए और एक-एक हिस्सा पत्नी और बच्चे के लिए।
“इस प्रकार प्रत्येक हिस्सा लगभग 14,900 रुपये आता है, जो याचिकाकर्ता की क्षमता और आश्रितों की उचित आवश्यकताओं का उचित प्रतिनिधित्व करता है…”
निर्णय (Decision)
हाईकोर्ट ने पति की आय और पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार के संबंध में फैमिली कोर्ट के निष्कर्षों की पुष्टि की। कोर्ट ने कहा कि पत्नी को दिया गया 15,000 रुपये प्रति माह का भरण-पोषण “न्यायसंगत, उचित और उसकी चिकित्सा स्थिति के अनुरूप” है।
हालांकि, नाबालिग बच्चे के संबंध में, कोर्ट ने उसकी उम्र को देखते हुए राशि में संशोधन किया:
“नाबालिग बच्चे की कम उम्र को देखते हुए, जो केवल साढ़े तीन साल का है, बच्चे को दिए गए 15,000 रुपये के अंतरिम भरण-पोषण को मामूली रूप से घटाकर 10,000 रुपये प्रति माह किया जा सकता है।”
कोर्ट ने निर्देश दिया कि बकाया राशि (Arrears) का भुगतान फैमिली कोर्ट के आदेशानुसार किया जाए और इसी के साथ पुनरीक्षण याचिका का निपटारा कर दिया गया।

