दिल्ली हाईकोर्ट ने देरी से दस्तावेज स्वीकार न करने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका खारिज की; जुर्माना लगाया

दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि प्रक्रियात्मक कानून का उद्देश्य न्याय की सहायता करना है, न कि एक पक्ष को मुकदमे के अंतिम चरण में अपनी कमियों को सुधारने का अवसर देना। जस्टिस गिरीश कठपालिया की पीठ ने एक याचिका को “पूरी तरह से आधारहीन” करार देते हुए खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता पर 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया। कोर्ट ने कहा कि 2012 से लंबित मुकदमे को लटकाने के इरादे से यह याचिका दायर की गई थी।

यह मामला संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत दायर एक याचिका से संबंधित था, जिसमें निचली अदालत के 17 सितंबर, 2025 के आदेश को चुनौती दी गई थी। निचली अदालत ने अंतिम बहस (Final Arguments) शुरू होने के बाद वादी (याचिकाकर्ता) द्वारा अतिरिक्त दस्तावेज रिकॉर्ड पर लेने और गवाहों को बुलाने के आवेदन को खारिज कर दिया था।

हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि अंतिम फैसले की दहलीज पर खड़े मुकदमे में प्रक्रिया का हवाला देकर नए सिरे से सुनवाई (De Novo Trial) शुरू करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद 2012 में दायर एक दीवानी मुकदमे से जुड़ा है, जिसमें याचिकाकर्ता संजीव नरूला ने अचल संपत्ति के कब्जे, हर्जाने और स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) की मांग की थी। प्रतिवादी परगट सिंह और अन्य ने विस्तृत लिखित बयान (Written Statement) दाखिल किया था।

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मुकदमे में पूरी सुनवाई (Trial) हो चुकी थी और अंतिम बहस का दौर चल रहा था। इस दौरान निचली अदालत द्वारा कुछ प्रश्न उठाए जाने के बाद, वादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VII नियम 14(3) और आदेश XVI नियम 1(3) के तहत आवेदन दायर कर अतिरिक्त दस्तावेज पेश करने की अनुमति मांगी। निचली अदालत ने इसे खारिज कर दिया, जिसके बाद वादी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. शशि किरण ने तर्क दिया कि अतिरिक्त दस्तावेज ‘रामजस फाउंडेशन’ (एक निजी ट्रस्ट) की कस्टडी में थे, इसलिए उन्हें उचित समय पर पेश नहीं किया जा सका। उन्होंने कहा कि ये दस्तावेज विवाद के निपटारे के लिए प्रासंगिक हैं।

वादी ने सुगंधि (मृत) बनाम पी. राजकुमार (2020) और प्रदीप बेली बनाम गिलमा डेनियल (2025) के फैसलों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि “प्रक्रिया न्याय की दासी (Handmaid of Justice) है और यह वास्तविक न्याय पर हावी नहीं हो सकती।” यह भी कहा गया कि “अदालत के कार्य से किसी को पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए।”

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

जस्टिस गिरीश कठपालिया ने वादी की दलीलों को खारिज करते हुए मुकदमे में अंतिमता (Finality) की आवश्यकता पर जोर दिया। कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की:

“बेशक, प्रक्रिया न्याय की दासी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या 2012 से लंबित मुकदमे, जो अब 2026 की दहलीज पर है, में नए सिरे से सुनवाई शुरू करना न्याय होगा?”

कोर्ट ने कहा कि अगर इस चरण पर दस्तावेज पेश करने की अनुमति दी गई, तो प्रतिवादियों को भी अपनी दलीलों में संशोधन करने और गवाही देने का अवसर देना होगा, जिससे मुकदमा और लंबा खिंचेगा।

दस्तावेजों की पूर्व जानकारी

हाईकोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता को इन दस्तावेजों की जानकारी वर्षों पहले से थी। यह बात सामने आई कि वादी ने 2016 में एक अन्य मुकदमे (CS DJ 13114/2016) में यही दस्तावेज दाखिल किए थे। कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा:

“अंतिम बहस के बाद ही याचिकाकर्ता/वादी अपनी नींद से जागा (Woke up from the slumber) और 19.05.2025 को अतिरिक्त दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियों के लिए आवेदन किया।”

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कमियों को भरने का प्रयास

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि निचली अदालत द्वारा प्रश्न पूछे जाने के बाद वादी को अपने केस में कमियां नजर आईं, जिन्हें भरने के लिए यह आवेदन दिया गया। कोर्ट ने कहा कि मांगे गए दस्तावेज (जैसे सेल डीड, लीज डीड, साइट प्लान आदि) सब-रजिस्ट्रार के रिकॉर्ड तलब करके वादी की गवाही के दौरान आसानी से साबित किए जा सकते थे, लेकिन तब ऐसा नहीं किया गया।

निर्णय

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि निचली अदालत के आदेश में कोई त्रुटि नहीं है। जस्टिस कठपालिया ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि यह केवल 2012 से लंबित मुकदमे के निस्तारण में देरी करने के उद्देश्य से दायर की गई थी।

कोर्ट ने निर्देश दिया:

“याचिका को 20,000 रुपये के हर्जाने के साथ खारिज किया जाता है, जिसे याचिकाकर्ता को एक सप्ताह के भीतर ‘भारत के वीर’ (www.bharatkeveer.gov.in) पर ऑनलाइन जमा करना होगा।”

केस विवरण:

केस टाइटल: संजीव नरूला बनाम परगट सिंह और अन्य

केस नंबर: CM(M) 2448/2025

कोरम: जस्टिस गिरीश कठपालिया 

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