अंतिम बहस के चरण में अपनी कमियों को भरने की अनुमति नहीं दी जा सकती: दिल्ली हाईकोर्ट ने 10 साल पुराने मुकदमे में अतिरिक्त दस्तावेज दाखिल करने की SBI की याचिका खारिज की

दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक (SBI) द्वारा दायर एक याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें बैंक ने निचली अदालत के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसके तहत अंतिम बहस (Final Arguments) के चरण में अतिरिक्त दस्तावेज रिकॉर्ड पर लेने से इनकार कर दिया गया था।

जस्टिस गिरीश कठपालिया की पीठ ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी वादी को अंतिम बहस शुरू होने के बाद केवल इसलिए अतिरिक्त दस्तावेज दाखिल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती ताकि वह विपक्षी दल द्वारा उजागर की गई अपनी केस की कमियों (Lacunae) को भर सके। कोर्ट ने कहा कि इस चरण पर ऐसी अनुमति देने का अर्थ व्यावहारिक रूप से मुकदमे का ‘नए सिरे से ट्रायल’ (De novo trial) शुरू करना होगा।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम श्री एस.सी. गोयल (CM(M) 2278/2025) से संबंधित है, जो वर्ष 2015 से लंबित है। याचिकाकर्ता, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने निचली अदालत के 18 अक्टूबर, 2025 के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।

निचली अदालत ने बैंक के सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VIII नियम 1A(3) के तहत दायर आवेदन को खारिज कर दिया था। यह आवेदन तब दायर किया गया था जब मुकदमे में अंतिम बहस आंशिक रूप से शुरू हो चुकी थी। ट्रायल कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि बैंक ने उचित चरण में दस्तावेज दाखिल न करने का कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया है और अब वह अंतिम बहस के दौरान सामने आई अपनी खामियों को छिपाने का प्रयास कर रहा है।

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याचिकाकर्ता की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता सुश्री जया तोमर ने तर्क दिया कि अतिरिक्त दस्तावेज उचित समय पर दाखिल नहीं किए जा सके क्योंकि वे “मिल नहीं रहे थे” (Not traceable)। उन्होंने दलील दी कि बैंक का क्षेत्रीय व्यवसाय कार्यालय (Regional Business Office) मेरठ से मुजफ्फरनगर स्थानांतरित हो गया था, जिसके कारण दस्तावेज इधर-उधर हो गए थे।

वकील ने स्पष्टीकरण दिया कि “कुछ अतिरिक्त दस्तावेज मुजफ्फरनगर की खराड़ शाखा में पड़े थे और कुछ क्षेत्रीय व्यवसाय कार्यालय, मेरठ में थे।” उन्होंने आग्रह किया कि भले ही उन पर जुर्माना (Cost) लगाया जाए, लेकिन न्याय के हित में आवेदन को स्वीकार किया जाना चाहिए।

अपने तर्कों के समर्थन में, वकील ने सुप्रीम कोर्ट के सुगंधी (मृत) बनाम पी. राजकुमार, (2020) 10 SCC 706 के फैसले का हवाला दिया।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

जस्टिस कठपालिया ने याचिका में कोई योग्यता नहीं पाई और नोटिस जारी करने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने याचिकाकर्ता द्वारा उद्धृत सुगंधी मामले को वर्तमान मामले से अलग बताया।

कोर्ट ने कहा कि सुगंधी मामले में, आदेश VIII नियम 1A(3) CPC के तहत आवेदन “प्रतिवादी के साक्ष्य शुरू होने से पहले” दायर किया गया था और वहां देरी का संतोषजनक स्पष्टीकरण भी मौजूद था।

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इसके विपरीत, वर्तमान मामले के संबंध में हाईकोर्ट ने कहा:

“याचिकाकर्ता/प्रतिवादी बैंक ने यह आवेदन अंतिम बहस के आंशिक रूप से आगे बढ़ने के बाद दायर किया है, जिसमें बैंक द्वारा स्थापित मामले की कमियां उजागर हो गई थीं। निचली अदालत ने अपने आदेश में सही दृष्टिकोण अपनाया है कि अब बैंक उन कमियों को भरने की कोशिश कर रहा है, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।”

हाईकोर्ट ने दस्तावेजों के खोने के संबंध में बैंक द्वारा दिए गए “अस्पष्ट स्पष्टीकरण” की आलोचना की। कोर्ट ने टिप्पणी की:

“इस बात का कोई जिक्र नहीं किया गया है कि कार्यालय कब स्थानांतरित किया गया और कब विषयगत अतिरिक्त दस्तावेज खो गए या खोजे गए… याचिकाकर्ता/प्रतिवादी बैंक कोई सामान्य वादी या व्यक्तिगत व्यक्ति नहीं है। बैंक एक राष्ट्रीयकृत बैंक है जिसके पास एक विधि विभाग (Law Department) और सरकारी खजाने से वेतन पाने वाले वरिष्ठ अधिकारी हैं, फिर भी उनमें से किसी ने रिकॉर्ड का ध्यान नहीं रखा।”

कोर्ट ने आगे नोट किया कि बैंक का साक्ष्य 16 दिसंबर, 2024 को बंद हो गया था, और यह किसी विशिष्ट अदालती आदेश द्वारा नहीं, बल्कि बैंक के अपने वकील के बयान पर बंद हुआ था। इसके बाद भी मुकदमा लगभग 10 महीने तक अंतिम बहस के चरण में लंबित रहा।

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जस्टिस कठपालिया ने प्रक्रियात्मक प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा:

“यदि विवादित आदेश को रद्द कर दिया जाता है और बैंक को अतिरिक्त दस्तावेज दाखिल करने का अवसर दिया जाता है, तो प्रतिवादी/वादी को उन दस्तावेजों से सामना कराने के लिए फिर से गवाह के कटघरे में बुलाना होगा, जिसके बाद उन दस्तावेजों को साबित करने के लिए बैंक से और गवाह आएंगे। व्यावहारिक रूप से, यह एक नए सिरे से ट्रायल (De novo trial) जैसा होगा…”

निर्णय

हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता को अपनी “लापरवाही (यदि जानबूझकर की गई चूक नहीं तो)” का एहसास केवल अंतिम बहस के आंशिक रूप से आगे बढ़ने के बाद हुआ। कोर्ट ने निचली अदालत के आदेश में कोई त्रुटि नहीं पाई और याचिका को “गुण-दोष रहित” (Devoid of merits) मानते हुए खारिज कर दिया।

इसके साथ ही लंबित आवेदनों का भी निस्तारण कर दिया गया।

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