दिल्ली हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया है कि यदि पत्नी बार-बार पति के नियोक्ता को झूठी और मानहानिकारक शिकायतें करती है, तो यह मानसिक क्रूरता मानी जाएगी। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेनू भटनागर की पीठ ने फैमिली कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(ia) के तहत विवाह विच्छेद की अनुमति दी गई थी।
मामला संक्षेप में
विवाह मई 1989 में हुआ था और दंपति के दो बच्चे हैं। पत्नी ने आरोप लगाया कि वर्ष 2011 में पति ने बिना सूचना दिए वैवाहिक घर बेच दिया और न तो कोई आर्थिक सहायता दी और न ही बच्चों की परवरिश में साथ दिया। पत्नी ने कहा कि उसने अकेले बच्चों की परवरिश की, कर्ज लिया और पति द्वारा दायर मामलों की वजह से उत्पीड़न सहा।
पति ने तलाक की याचिका दाखिल करते हुए कहा कि पत्नी ने उस पर व्यभिचार के आरोप सहित कई झूठे और मानहानिकारक आरोप लगाए, और उसके विरुद्ध विभिन्न प्राधिकरणों और उसके नियोक्ता के पास शिकायतें दर्ज कराईं।

फैमिली कोर्ट ने तलाक की डिक्री पारित की, जिसे पत्नी ने अपील में चुनौती दी।
अपील में पत्नी की दलीलें
पत्नी की ओर से तर्क दिया गया कि फैमिली कोर्ट ने ऐसे आरोपों पर भरोसा किया जो न तो साबित हुए थे और न ही स्पष्ट थे। उन्होंने कहा कि उन्होंने जो शिकायतें कीं, वे उपेक्षा और उत्पीड़न के कारण न्याय पाने का प्रयास थीं, और यह कि पति द्वारा उन पर व्यभिचार का आरोप लगाना खुद में क्रूरता है।
इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि फैमिली कोर्ट ने जिन सीडी को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया, उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 63) का पालन किए बिना ही मान्य कर लिया गया।
उन्होंने राज तलरेजा बनाम कविता तलरेजा (2017) 14 SCC 194 और एन. जी. दस्ताने बनाम एस. दस्ताने (1975) 2 SCC 326 के निर्णयों का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि यदि शिकायत उचित कारण से की गई हो तो वह क्रूरता नहीं मानी जा सकती।
हाईकोर्ट के अवलोकन
हाईकोर्ट ने इन तर्कों को खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट के निष्कर्षों को सही ठहराया।
कोर्ट ने देखा कि पत्नी ने न केवल पुलिस और महिला आयोग में शिकायतें कीं, बल्कि प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विशेष रूप से पति के नियोक्ता तक को शिकायतें भेजीं। एक शिकायत में उन्होंने पति और उसकी सहकर्मी के बीच अवैध संबंध होने का आरोप लगाया।
कोर्ट ने कहा कि इन शिकायतों के समर्थन में कोई प्रमाण नहीं है। पत्नी ने शिकायत करने से इनकार नहीं किया बल्कि उन्हें “एक तिरस्कृत पत्नी की स्वाभाविक प्रतिक्रिया” बताया।
इस पर कोर्ट ने कहा:
“पति के नियोक्ता को इस प्रकार की आपत्तिजनक और मानहानिकारक शिकायतें करना क्रूरता के सिवा कुछ नहीं है।”
कोर्ट ने जॉयदीप मजूमदार बनाम भारती जयसवाल मजूमदार (2021) 3 SCC 742 और अवनेश्वर सिंह बनाम मोनिका 2024 SCC OnLine Del 2335 का हवाला दिया, जिनमें यह माना गया कि यदि शिकायतों का उद्देश्य केवल बदनामी या करियर खराब करना हो, तो वे—even if true—क्रूरता मानी जाएंगी।
जहाँ तक शारीरिक और मौखिक दुर्व्यवहार के आरोपों का प्रश्न है, कोर्ट ने मेडिकल रिकॉर्ड और ऑडियो रिकॉर्डिंग के आधार पर फैमिली कोर्ट की कार्यवाही को सही ठहराया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि फैमिली कोर्ट्स अधिनियम की धारा 14 के तहत ऐसा साक्ष्य विधिवत रूप से भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत सिद्ध किए बिना भी स्वीकार किया जा सकता है।
दीर्घकालीन अलगाव को भी माना गया कारक
कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि पति-पत्नी वर्ष 2010–2011 से अलग रह रहे हैं। राकेश रमन बनाम कविता (2023) 17 SCC 433 के फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि दीर्घकालीन अलगाव से उत्पन्न कटुता भी क्रूरता के दायरे में आती है।
“एक ऐसा विवाह जो पूरी तरह टूट चुका हो… वह दोनों पक्षों के लिए क्रूरता के समान होता है।” कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह बात उद्धृत की।
निष्कर्ष
कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए कहा:
“तथ्यों और विधि के उपरोक्त विश्लेषण को देखते हुए, हमें चुनौती दिए गए निर्णय में कोई त्रुटि नहीं दिखती।”
सभी लंबित आवेदनों को निष्प्रभावी मानते हुए खारिज कर दिया गया।