दिल्ली हाईकोर्ट ने सेवा के दौरान उत्पन्न हुई शारीरिक अक्षमताओं से जूझ रहे सैनिकों के अधिकारों को मान्यता देते हुए, दो सैन्यकर्मियों को दिव्यांग पेंशन देने के आदेश के खिलाफ केंद्र सरकार की अपील को खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर और न्यायमूर्ति अजय दीगपाल की पीठ ने नागरिक जीवन की सुविधाओं और सैनिकों के कठोर जीवन के बीच के स्पष्ट अंतर को रेखांकित किया।
न्यायमूर्ति शंकर ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी के ऐतिहासिक भाषण की पंक्तियों का हवाला देते हुए कहा,
“जब हम आराम से आग के पास बैठकर गर्म कॉफी पीते हैं, तब हमारे सैनिक सीमाओं पर हाड़ कंपा देने वाली ठंड में तैनात रहते हैं और किसी भी क्षण अपनी जान देने को तैयार रहते हैं।”
उन्होंने यह कहते हुए सैन्य सेवा में निहित बलिदान को रेखांकित किया।
यह मामला दो सैन्य अधिकारियों से जुड़ा था—एक डिफेंस सिक्योरिटी कॉर्प्स के जवान जिन्हें पेरिफेरल आर्टेरियल ऑक्लूसिव डिजीज हुआ और दूसरे पूर्व अधिकारी जिन्हें 2015 में सेवानिवृत्ति के बाद डायबिटीज़ मेलिटस टाइप-II से पीड़ित पाया गया। दोनों ही स्थितियाँ सेवा के दौरान उत्पन्न हुई थीं, जिसे ध्यान में रखते हुए सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (AFT) ने उन्हें दिव्यांग पेंशन देने का आदेश दिया था। इस आदेश को केंद्र सरकार ने चुनौती दी थी।

केंद्र का तर्क था कि दोनों अधिकारियों की तैनाती “पीस पोस्टिंग” (शांतिपूर्ण क्षेत्र) में थी, अतः उनकी बीमारियाँ सेवा से संबंधित नहीं मानी जा सकतीं। लेकिन अदालत ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि सैन्य जीवन की जटिलताएं केवल युद्धभूमि तक सीमित नहीं होतीं—तनाव और प्रतिकूल परिस्थितियाँ गैर-युद्ध क्षेत्रों में भी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं।
न्यायमूर्ति शंकर ने स्पष्ट किया,
“मानव शरीर, जो केवल त्वचा और हड्डियों से बना है, हमेशा आत्मबल की गति के साथ नहीं चल सकता।”
उन्होंने कहा कि सेवा से उत्पन्न स्वास्थ्य समस्याओं के कारण अपंग हो चुके सैनिकों के लिए दिव्यांग पेंशन आवश्यक है, ताकि उन्हें वित्तीय स्थिरता मिल सके।
अदालत ने “पीस पोस्टिंग” को पेंशन न देने का आधार बनाने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए कहा कि यह एक सरलीकृत दृष्टिकोण है। साथ ही स्पष्ट किया कि यह दायित्व सशस्त्र बलों की मेडिकल बोर्ड का है कि वे यह सिद्ध करें कि किसी सैनिक की बीमारी का संबंध उसकी सेवा से नहीं है।