दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (ITAT) के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें आपराधिक कानून के सिद्धांतों को आयकर पुनर्मूल्यांकन मामलों में लागू कर दिया गया था। मुख्य न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि “‘संदेह से परे प्रमाण’ का सिद्धांत केवल दंडात्मक प्रावधानों पर लागू होता है, न कि आयकर अधिनियम के तहत पुनर्मूल्यांकन मामलों पर।”
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला Pr. Commissioner of Income Tax-1 बनाम M/S East Delhi Leasing Pvt. Ltd. (ITA 61/2025) से संबंधित है, जिसमें आयकर विभाग ने आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 147 के तहत ईस्ट दिल्ली लीजिंग प्राइवेट लिमिटेड के मूल्यांकन को फिर से खोला था। विभाग ने संदिग्ध लेन-देन रिपोर्ट (STR) में चिह्नित कुछ लेन-देन को अघोषित आय का संकेत मानते हुए पुनर्मूल्यांकन शुरू किया था।
ITAT ने पहले करदाता के पक्ष में फैसला सुनाया था और कहा था कि पुनर्मूल्यांकन की कार्यवाही केवल संदेह के आधार पर शुरू की गई, न कि ठोस “विश्वास” के आधार पर कि आय कर से बची है। न्यायाधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट के Raja Naykar बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (Criminal Appeal No. 902 of 2023) मामले का हवाला देते हुए कहा कि किसी प्रतिकूल निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए ‘संदेह से परे प्रमाण’ आवश्यक है।

मुख्य कानूनी मुद्दे
- आपराधिक कानून के सिद्धांतों की कर कानून में प्रासंगिकता:
क्या आपराधिक कानून में अनिवार्य “संदेह से परे प्रमाण” सिद्धांत को कर पुनर्मूल्यांकन मामलों में लागू किया जा सकता है? - ‘संदेह करने का कारण’ बनाम ‘विश्वास करने का कारण’:
आयकर अधिनियम की धारा 147 के तहत, पुनर्मूल्यांकन के लिए मूल्यांकन अधिकारी (AO) को यह विश्वास होना चाहिए कि आय कर मूल्यांकन से बच गई है। यह केवल संदेह के आधार पर नहीं किया जा सकता। - पुनर्मूल्यांकन के लिए ठोस सामग्री:
उच्च न्यायालय ने जांच की कि क्या AO के पास पुनर्मूल्यांकन का ठोस आधार था, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के ITO बनाम Lakhmani Mewal Das (1976) और DCIT बनाम M.R. Shah Logistics (2022) मामलों में निर्धारित किया गया था।
कोर्ट का निर्णय और टिप्पणियाँ
दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि ITAT ने गलत तरीके से आपराधिक कानून के सिद्धांतों को कर मामलों में लागू किया। न्यायमूर्ति गेडेला ने निर्णय में कहा:
“‘संदेह से परे प्रमाण’ का सिद्धांत केवल दंडात्मक प्रावधानों पर लागू होता है। कर अधिनियम की धारा 148 के तहत पुनर्मूल्यांकन के लिए ‘विश्वास करने का कारण’ होना चाहिए, जो ठोस तथ्यों पर आधारित हो, न कि मात्र संदेह पर।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही उचित आधारों पर आधारित होनी चाहिए, न कि केवल संबंधित संस्थाओं के बीच धन प्रवाह के संदेह के कारण। सुप्रीम कोर्ट के Lakhmani Mewal Das फैसले का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि “हालांकि पुनर्मूल्यांकन के कारणों की पर्याप्तता की जांच नहीं की जा सकती, लेकिन ‘विश्वास करने का कारण’ का अस्तित्व न्यायिक समीक्षा के अधीन है।”