दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को भारतीय न्याय संहिता (BNS) के कुछ प्रावधानों को निरस्त करने की मांग वाली एक जनहित याचिका (PIL) को खारिज कर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका के पास संसद को कोई कानून बनाने या निरस्त करने का निर्देश देने का अधिकार नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति अनीश दयाल की खंडपीठ ने कहा कि ऐसे किसी भी विधायी कदम का अधिकार केवल संसद के पास है। अदालत ने टिप्पणी की, “निरस्तीकरण केवल संशोधन अधिनियम के माध्यम से ही संभव है। यह संसद का विषय है। हम संसद को ऐसा करने का निर्देश नहीं दे सकते। यह कानून बनाने जैसा होगा, जो हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।”
यह याचिका उपेन्द्रनाथ दलई द्वारा दायर की गई थी, जिसमें बीएनएस की धाराओं 147 से 158 और 189 से 197 को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता के अनुसार, ये धाराएं राज्य के विरुद्ध अपराधों और लोक शांति भंग करने से संबंधित हैं, जिन्हें ब्रिटिश शासनकाल में भारतीयों को दबाने के लिए लागू किया गया था। उनका कहना था कि इन कानूनों को आज भी लागू रखना संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।

याचिका में विशेष रूप से बीएनएस की धारा 189 का उल्लेख किया गया, जो ‘गैरकानूनी जमावड़ा’ से संबंधित है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि इस प्रावधान का सरकारें अक्सर पुलिस की मदद से असहमति की आवाज को दबाने के लिए दुरुपयोग करती रही हैं।
हालांकि, अदालत ने याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया और दोहराया कि वह विधायिका की भूमिका नहीं निभा सकती।