दिल्ली हाईकोर्ट ने 1883 दिनों की देरी से दायर अपील खारिज की; कहा- यदि समय सीमा 15 मार्च 2020 से पहले समाप्त हो गई थी तो कोविड-19 छूट का लाभ नहीं मिलेगा

दिल्ली हाईकोर्ट ने 1883 दिनों की “अत्यधिक देरी” (Colossal Delay) के साथ दायर की गई एक अपील को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कोरोना महामारी के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा परिसीमा अवधि (Limitation Period) बढ़ाने के आदेशों का लाभ उन वादियों को नहीं मिल सकता, जिनकी अपील दायर करने की समय सीमा 15 मार्च 2020 से पहले ही समाप्त हो चुकी थी।

न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने अपील दायर करने और उसे दोबारा दाखिल (Re-filing) करने में हुई देरी को माफ करने के आवेदनों को खारिज कर दिया। बेंच ने कहा कि अपीलकर्ता इतनी लंबी देरी के लिए कोई “पर्याप्त कारण” (Sufficient Cause) बताने में विफल रहा है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील सुनील कुमार बनाम राजीव सूरी मामले में दायर की गई थी, जिसमें एकल न्यायाधीश (Single Judge) द्वारा 20 जनवरी, 2020 को पारित एक फैसले को चुनौती दी गई थी। एकल न्यायाधीश ने अपीलकर्ता के पक्ष में 20 लाख रुपये के लिए आंशिक रूप से मुकदमा डिक्री किया था, लेकिन ‘विशिष्ट पालन’ (Specific Performance) की राहत देने से इनकार कर दिया था।

इस फैसले के खिलाफ अपील 16 अप्रैल, 2025 को दायर की गई और बाद में 15 नवंबर, 2025 को पुनः दाखिल (Re-filed) की गई। अपील के साथ, अपीलकर्ता ने दो आवेदन दायर किए: एक अपील दायर करने में 1883 दिनों की देरी को माफ करने के लिए और दूसरा पुनः दाखिल करने में हुई 182 दिनों की देरी के लिए।

अपीलकर्ता की दलीलें

अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि कोविड-19 महामारी और उसके बाद हुए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण वैधानिक अवधि के भीतर अपील दायर नहीं की जा सकी। सुप्रीम कोर्ट के In re: Cognizance for extension of limitation (Suo Motu Writ Petition No. 3 of 2020) के फैसले का हवाला देते हुए, वकील ने तर्क दिया कि 15 मार्च, 2020 से 28 फरवरी, 2022 तक की अवधि को परिसीमा अवधि (Limitation Period) से बाहर रखा गया था।

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इसके अलावा, अपीलकर्ता ने देरी के कारणों के रूप में कई चिकित्सा बीमारियों का हवाला दिया, जिसमें दाहिनी आंख की रोशनी कम होना, हेपेटाइटिस सी, हर्निया सर्जरी, घुटने की बीमारी और हृदय संबंधी समस्याएं शामिल थीं। अपीलकर्ता ने यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्ली बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले का हवाला देते हुए तर्क दिया कि कोर्ट को “उदार दृष्टिकोण” अपनाना चाहिए और तकनीकी विचारों पर “ठोस न्याय” (Substantial Justice) को प्राथमिकता देनी चाहिए।

कोर्ट का विश्लेषण

कोर्ट ने सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए कोविड-19 समय सीमा विस्तार की प्रयोज्यता पर विचार किया। बेंच ने नोट किया कि परिसीमा अधिनियम (Limitation Act) की अनुसूची के अनुच्छेद 117 के तहत, हाईकोर्ट की डिक्री के खिलाफ उसी कोर्ट में अपील दायर करने की अवधि 30 दिन है।

मौजूदा मामले में, समय सीमा 20 जनवरी, 2020 से शुरू हुई और 21 फरवरी, 2020 को समाप्त हो गई।

बेंच ने कहा:

“अतः, मौजूदा अपील के लिए समय सीमा 15.03.2020 से काफी पहले समाप्त हो गई थी और निर्विवाद रूप से यह 15.03.2020 और 28.02.2022 के बीच की अवधि में नहीं आती है।”

नतीजतन, कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट के छूट आदेशों का कोई लाभ नहीं ले सकता।

चिकित्सा आधारों के संबंध में, कोर्ट ने मेडिकल रिकॉर्ड की बारीकी से जांच की और उन्हें पांच साल से अधिक की देरी को सही ठहराने के लिए अपर्याप्त पाया। कोर्ट ने नोट किया कि आंखों की रोशनी कम होने के दावे के समर्थन में केवल “कम दृष्टि” के लिए नियमित ओपीडी परामर्श (OPD consultations) के पर्चे थे, जिनमें से किसी के लिए भी अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह, कथित हेपेटाइटिस सी के इलाज का कोई रिकॉर्ड पेश नहीं किया गया।

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हर्निया और हृदय रोगों के संबंध में, कोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड द्वारा पुष्टि की गई अस्पताल में भर्ती होने की कुल अवधि 1883 दिनों की कुल देरी में से केवल सात दिन थी।

बेंच ने टिप्पणी की:

“हमें खेद है कि लगभग पांच वर्षों में अलग-अलग अवसरों पर चार ओपीडी परामर्श, किसी भी पैमाने पर, न तो हमारे विश्वास को जगाते हैं और न ही किसी ‘पर्याप्त कारण’ का खुलासा करते हैं, जिसने अपीलकर्ता को इस कोर्ट का दरवाजा खटखटाने से रोका हो।”

कोर्ट ने हर्निया सर्जरी के समय के बारे में अपीलकर्ता के दावों में विसंगतियों को भी इंगित किया और नोट किया कि “विरोधाभासी संस्करणों” ने स्पष्टीकरण की विश्वसनीयता को कमजोर कर दिया।

कानूनी सिद्धांत

कोर्ट ने पथापति सुब्बा रेड्डी (मृत) बनाम विशेष डिप्टी कलेक्टर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें दोहराया गया कि परिसीमा कानून सार्वजनिक नीति पर आधारित है।

सुप्रीम कोर्ट को उद्धृत करते हुए, बेंच ने कहा:

“यदि किसी पक्ष को लापरवाह पाया जाता है, या मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उसकी ओर से ईमानदारी (Bona fide) की कमी पाई जाती है, या यह पाया जाता है कि उसने तत्परता से कार्य नहीं किया या निष्क्रिय रहा, तो देरी को माफ करने का कोई उचित आधार नहीं हो सकता।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यद्यपि “उदार दृष्टिकोण” अपनाया जा सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बिना किसी उचित स्पष्टीकरण के “विशाल देरी” को स्वचालित रूप से माफ कर दिया जाए।

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निर्णय

कोर्ट ने अपील दायर करने में हुई देरी को माफ करने के आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि दिया गया स्पष्टीकरण “न तो वास्तविक है और न ही पर्याप्त।”

पुनः दाखिल (Re-filing) करने में हुई 182 दिनों की बाद की देरी को संबोधित करते हुए, कोर्ट ने नोट किया कि अपीलकर्ता ने उंगली की चोट का हवाला दिया जिसके लिए केवल एक दिन अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता थी। कोर्ट ने अपीलकर्ता के दृष्टिकोण को “लापरवाह” (Lackadaisical) करार दिया और कहा कि फाइलिंग में खामियों को तुरंत ठीक नहीं किया गया था।

निर्णय का समापन करते हुए, बेंच ने कहा:

“एक आवश्यक परिणाम के रूप में, और अपीलकर्ता द्वारा योग्यता (Merits) के आधार पर अपील पर विचार करने की पुष्टि करने में असमर्थ होने के कारण… वर्तमान अपील खारिज की जाती है।”

कोर्ट ने लागत (Cost) के संबंध में कोई आदेश नहीं दिया।

केस डीटेल्स:

  • केस टाइटल: सुनील कुमार बनाम राजीव सूरी
  • केस नंबर: RFA(OS) 70/2025 और CM APPL. 72345-72347/2025
  • कोरम: न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर

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