दिल्ली हाईकोर्ट ने 1984 के एक भ्रष्टाचार मामले में दोषी ठहराए गए 90 वर्षीय व्यक्ति की सजा घटाकर सिर्फ एक दिन कर दी है, जो उन्होंने पहले ही भुगत ली थी। कोर्ट ने फैसले में कहा कि लगभग 40 वर्षों तक चली कानूनी अनिश्चितता संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त “त्वरित न्याय के अधिकार” के स्पष्ट विपरीत है।
न्यायमूर्ति जसमीत सिंह ने 8 जुलाई को फैसला सुनाते हुए कहा कि यह लंबी कानूनी प्रक्रिया उस व्यक्ति के लिए “दमोले की तलवार” की तरह लटकी रही। उन्होंने कहा, “दोषी की उम्र एक महत्वपूर्ण कारण है, जो सजा घटाने में निर्णायक रही। 90 वर्ष की उम्र और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के चलते, कारावास के शारीरिक और मानसिक प्रभावों से उन्हें अपूरणीय क्षति हो सकती है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि ट्रायल में ही 19 साल लग गए, और अपील को निपटने में 22 साल और लग गए — कुल मिलाकर 40 साल की देरी। यह देरी न केवल असंगत है बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की संवैधानिक मूलभावना के विरुद्ध है। इसी आधार पर कोर्ट ने सजा घटाकर “पहले से भुगती गई अवधि” कर दी और आंशिक रूप से अपील को स्वीकार किया।

इस मामले में आरोपी सुरेंद्र कुमार, जो उस समय स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (STC) में चीफ मार्केटिंग मैनेजर थे, पर आरोप था कि उन्होंने मुंबई की एक फर्म के साझेदार से ₹15,000 की रिश्वत मांगी थी। यह फर्म 140 टन सूखी मछली की आपूर्ति के लिए कोटेशन दे रही थी। शिकायतकर्ता अब्दुल करीम हमीद ने सीबीआई से संपर्क किया, जिसने जाल बिछाकर ₹7,500 की पहली किश्त लेते समय कुमार को गिरफ्तार कर लिया।
गिरफ्तारी के बाद कुमार को जमानत मिल गई थी, लेकिन 2002 में उन्हें भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम और भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत दोषी ठहराया गया और तीन साल की सजा तथा ₹15,000 का जुर्माना सुनाया गया। उन्होंने उसी वर्ष सजा के खिलाफ अपील दायर की थी, हालांकि दोषसिद्धि को चुनौती नहीं दी थी। हाईकोर्ट ने इस पर भी ध्यान दिया कि उन्होंने जुर्माना पहले ही अदा कर दिया था।
कोर्ट ने निष्कर्ष में कहा, “यह मामला न केवल न्यायिक प्रक्रिया में समयबद्धता की आवश्यकता को उजागर करता है, बल्कि न्यायिक विलंब के मानवीय प्रभाव को भी रेखांकित करता है।”