दिल्ली हाईकोर्ट ने एक 20 वर्षीय युवक हर्ष कुमार शर्मा की संदिग्ध परिस्थितियों में कार में मौत के बाद दिल्ली पुलिस और उत्तर प्रदेश पुलिस दोनों को एफआईआर दर्ज न करने और समय पर जांच शुरू न करने के लिए कड़ी फटकार लगाई है।
न्यायमूर्ति अनुप जयराम भंभानी ने मृतक की बहन द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह “जिम्मेदारी टालने” का क्लासिक मामला है, जिसकी वजह से महत्वपूर्ण फॉरेंसिक सबूत नष्ट हो गए।
हर्ष कुमार शर्मा 3 दिसंबर 2024 को नोएडा स्थित कॉलेज के लिए निकले थे, लेकिन इसके बाद वह लापता हो गए। बाद में उनका शव ग्रेटर नोएडा के एक सुनसान इलाके में खड़ी कार में मिला, जिसमें कथित तौर पर एक कार्बन मोनोऑक्साइड सिलेंडर भी था। परिवार की कई बार शिकायत के बावजूद दिल्ली और यूपी पुलिस ने न तो एफआईआर दर्ज की और न ही हत्या की जांच शुरू की।
कोर्ट ने इस स्थिति को “अकल्पनीय” बताते हुए कहा कि कोई भी प्रशिक्षित अधिकारी उस कार की सबूत के रूप में अहमियत को समझ सकता था। “कार फॉरेंसिक सबूतों का भंडार थी… जिससे अपराध की प्रकृति और स्रोत के बारे में महत्वपूर्ण सुराग मिल सकते थे,” कोर्ट ने कहा। कोर्ट ने यूपी पुलिस को कार को बिना सबूत इकट्ठा किए ही परिवार को लौटा देने पर भी कड़ी आपत्ति जताई।
कोर्ट ने गवाहों के बयान दर्ज न करने, डीएनए और फिंगरप्रिंट सबूत न लेने को भी गंभीर चूक बताया।
इस मामले में सख्त रुख अपनाते हुए कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को आदेश दिया कि वह भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 103 (हत्या) और अन्य प्रासंगिक धाराओं के तहत “ज़ीरो एफआईआर” दर्ज करे और एक सप्ताह के भीतर एकत्रित सारा सामग्री यूपी पुलिस को सौंपे। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ज़ीरो एफआईआर क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र की परवाह किए बिना दर्ज की जाती है और फिर संबंधित थाने को स्थानांतरित की जाती है।
कोर्ट ने यूपी पुलिस को भी निर्देश दिया कि वह उपयुक्त धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज करे और जांच में कोई और देरी न करे। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 194 के तहत चल रही मजिस्ट्रेटी जांच (inquest) एफआईआर दर्ज करने में बाधा नहीं बन सकती, खासकर जब हत्या का संदेह हो।
कोर्ट ने कहा, “इस अदालत का मानना है कि यूपी पुलिस के पास हत्या के अपराध के तहत सीधे एफआईआर दर्ज करने के लिए पर्याप्त सामग्री मौजूद थी।”
दिल्ली पुलिस ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि उसकी सीमा में कोई आपराधिक संदेह वाली शिकायत नहीं मिली थी, जबकि यूपी पुलिस ने इसे “संदिग्ध मौत” बताया और कहा कि जांच प्रक्रिया जारी है और हत्या के ठोस सबूत अभी तक नहीं मिले हैं।
हालांकि, हाईकोर्ट ने इन तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले मजिस्ट्रेटी जांच के निष्कर्ष का इंतजार करना कानूनन गलत और व्यावहारिक रूप से दोषपूर्ण है।
याचिका का निपटारा करते हुए कोर्ट ने दोनों पुलिस बलों की “कर्तव्य में लापरवाही” पर खेद प्रकट किया और कहा कि जांच में सुस्ती और क्षेत्राधिकार का विवाद कभी भी न्याय के रास्ते में बाधा नहीं बनना चाहिए — विशेषकर जब अहम सबूत नष्ट हो रहे हों।