दिल्ली हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट करते हुए कि सिविल नौकरियों और अर्धसैनिक बलों की नियुक्तियों में मौलिक अंतर है, कहा कि अर्धसैनिक बलों में कार्यरत कर्मियों के लिए “उत्कृष्ट शारीरिक स्थिति” केवल एक पसंद नहीं बल्कि एक आवश्यक शर्त है, जो सेवा की अत्यधिक मांगों के कारण जरूरी है।
न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर और न्यायमूर्ति अजय दीगपाल की खंडपीठ ने यह टिप्पणी 15 मई को उस याचिका को खारिज करते हुए की जिसमें एक अभ्यर्थी ने मेडिकल आधार पर इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (ITBP) में अस्वीकृत किए जाने को चुनौती दी थी। अभ्यर्थी को एक अंडकोष हटाए जाने के कारण अयोग्य ठहराया गया था।
कोर्ट ने कहा, “सिविल नौकरी और अर्धसैनिक बलों की नौकरी में मूलभूत अंतर यह है कि अर्धसैनिक बलों में काम करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक शारीरिक ताकत अनिवार्य है। इन बलों में ‘पूर्ण स्वास्थ्य’ केवल एक वरीयता का मामला नहीं बल्कि परिचालन क्षमता और सुरक्षा के लिए अनिवार्य है।”

कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि अर्धसैनिक बलों की तैनाती ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों, रेगिस्तानों और अन्य कठिन इलाकों में होती है, जहां कर्मियों को अत्यधिक मौसम और शारीरिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन परिस्थितियों को देखते हुए, बलों के लिए कड़े चिकित्सा मापदंड बनाए रखना अनिवार्य है।
याचिकाकर्ता ने दलील दी कि एक अंडकोष हटाया जाना उसे भारतीय वायुसेना जैसी अन्य सैन्य सेवाओं के लिए अयोग्य नहीं बनाता और इसलिए उसे समानता का अधिकार मिलना चाहिए। इस पर कोर्ट ने कहा कि चिकित्सा पात्रता मानक हर सेवा के लिए अलग होते हैं, और एक बल के मापदंड दूसरे पर बाध्यकारी नहीं हो सकते।
कोर्ट ने स्पष्ट किया, “चिकित्सा मानक संबंधित बलों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। इसलिए, कोई रोग जो किसी बल में अस्वीकृति का आधार नहीं है, वह अन्य अर्धसैनिक बलों पर भी समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता।”
चिकित्सा बोर्ड के निर्णय को सही ठहराते हुए पीठ ने कहा, “हम उत्तरदाताओं द्वारा याचिकाकर्ता को चिकित्सकीय रूप से अयोग्य घोषित करने के निर्णय में कोई कानूनी या तथ्यात्मक त्रुटि नहीं पाते।”