दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में एक असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर पर लगाए गए दंड (Penalty) के आदेश को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पाया कि विभाग द्वारा महिला अधिकारी को ‘चाइल्ड केयर लीव’ (CCL) देने से इनकार करना एक “यांत्रिक” (Mechanical) प्रक्रिया थी और उनके खिलाफ चलाई गई अनुशासनात्मक कार्यवाही में गंभीर “प्रक्रियात्मक अनियमितताएं” थीं।
जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस मधु जैन की खंडपीठ ने रितु रवि प्रकाश द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह आठ सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ता का वेतन और परिणामी सेवा लाभ बहाल करे। कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि अधिकारी पर लगाया गया दंड “अंतरात्मा को झकझोरने वाला” (shocks the conscience) है, क्योंकि यह पूरा मामला केवल अपनी नाबालिग बेटियों की देखभाल के लिए छुट्टी मांगने से जुड़ा था।
मामले का संक्षिप्त विवरण
इस केस में कानूनी सवाल यह था कि क्या चाइल्ड केयर लीव (CCL) के आवेदनों को खारिज किए जाने के बाद अनधिकृत अनुपस्थिति (Unauthorized Absence) के लिए याचिकाकर्ता के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों और केंद्रीय सिविल सेवा (सीसीए) नियम, 1965 के अनुरूप थी या नहीं।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही CCL अधिकार का मामला नहीं है, लेकिन इसे अस्वीकार करने की शक्ति का प्रयोग उचित तरीके से किया जाना चाहिए। पीठ ने यह भी माना कि एक बार जब अनुपस्थिति की अवधि को ‘असाधारण अवकाश’ (Extra-Ordinary Leave – EOL) के रूप में नियमित कर दिया जाता है, तो उसी अवधि के लिए विभागीय कार्यवाही नहीं की जा सकती। इसके चलते कोर्ट ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के 29 जून 2021 के आदेश और अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा पारित दंड आदेश को रद्द कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता केंद्रीय सचिवालय सेवा में असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं और दो बेटियों की मां हैं। वर्ष 2012 से 2016 के बीच, जब उनकी बेटियां 10वीं और 12वीं कक्षा में थीं, उन्होंने कई बार चाइल्ड केयर लीव (CCL) के लिए आवेदन किया।
रिकॉर्ड के अनुसार, जब वह प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्रालय और बाद में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में तैनात थीं, तो उनके छुट्टी के आवेदनों को बार-बार “काम की अधिकता” या रोटेशनल ट्रांसफर का हवाला देकर खारिज कर दिया गया। विशेष रूप से, 2014 में 54 दिनों की CCL की मांग को ठुकरा दिया गया, जबकि याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि उसी समय समान पद पर तैनात अन्य कर्मचारियों को छुट्टी दी गई थी।
ड्यूटी से अनुपस्थित रहने के बाद, 11 दिसंबर 2015 को उन्हें आरोप पत्र (Memorandum of Charges) जारी किया गया। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने “जानबूझकर कर्तव्य से अनुपस्थित रहकर घोर लापरवाही” और “कर्तव्य के प्रति समर्पण की कमी” का प्रदर्शन किया। हालांकि, जांच अधिकारी (Inquiry Officer) ने 10 अगस्त 2018 की अपनी रिपोर्ट में माना कि आरोप साबित नहीं हुए थे।
इसके बावजूद, अनुशासनात्मक प्राधिकारी (Disciplinary Authority) ने जांच अधिकारी के निष्कर्षों से असहमति जताई और एक ‘असहमति नोट’ (Disagreement Note) जारी किया। इसके बाद, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) से परामर्श के बाद, 23 सितंबर 2019 को उन पर दंड लगाया गया, जिसके तहत तीन साल के लिए उनके वेतन को दो स्टेज कम कर दिया गया और इस अवधि के दौरान वेतन वृद्धि (Increment) पर भी रोक लगा दी गई।
याचिकाकर्ता ने इस दंड को कैट (CAT) के समक्ष चुनौती दी, लेकिन वहां से याचिका खारिज होने के बाद उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता का पक्ष: याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि कर्मचारियों की कमी का हवाला देकर CCL आवेदनों को खारिज करना मनमाना था। उन्होंने बताया कि उसी अवधि के दौरान श्रीमती सविता ठाकुर और श्रीमती रेखा जैसी अन्य अधिकारियों को लंबी अवधि की छुट्टियां दी गई थीं।
अनुशासनात्मक प्रक्रिया के संबंध में, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा जारी किया गया “असहमति नोट” अस्थायी (Tentative) होने के बजाय निष्कर्षपूर्ण था, जो सीसीएस (सीसीए) नियम, 1965 के नियम 15(2) का उल्लंघन है। यह तर्क दिया गया कि प्राधिकारी ने मामले को पहले से ही पूर्वाग्रह (Pre-judged) के साथ देखा।
इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने ‘डबल जियोपार्डी’ (Double Jeopardy) का मुद्दा उठाया। उनका कहना था कि 11 मार्च 2014 से 8 अगस्त 2014 तक की अनुपस्थिति को पहले ही ‘असाधारण अवकाश’ (EOL) के रूप में नियमित किया जा चुका था और देर से आने के लिए उनके वेतन से कटौती की गई थी। इसलिए, जब प्रशासनिक कार्रवाई पहले ही की जा चुकी थी, तो उसी कारण के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही अनुचित थी।
प्रतिवादी (केंद्र सरकार) का पक्ष: भारत संघ की ओर से तर्क दिया गया कि केंद्रीय सिविल सेवा (अवकाश) नियम, 1972 के नियम 43-C(1) के तहत CCL को अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता। सरकार ने प्रशासनिक आवश्यकताओं और कर्मचारियों की कमी के आधार पर छुट्टी अस्वीकार करने को उचित ठहराया।
प्रतिवादी ने यह भी कहा कि अनुपस्थिति को EOL के रूप में नियमित करने का मतलब यह नहीं है कि कदाचार (Misconduct) के लिए स्वतंत्र अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकती।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणी
चाइल्ड केयर लीव से इनकार पर: कोर्ट ने कहा कि भले ही छुट्टी का दावा अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता, लेकिन प्राधिकारी को अपनी शक्ति का प्रयोग उचित तरीके से करना चाहिए। पीठ ने नोट किया कि प्रतिवादी कर्मचारियों की कमी के दावे को साबित करने के लिए कोई रिकॉर्ड पेश करने में विफल रहा।
जस्टिस मधु जैन ने फैसले में कहा:
“ऐसी परिस्थितियों में CCL से इनकार करना, बार-बार अभ्यावेदन देने और किसी ठोस प्रशासनिक आवश्यकता के अभाव में, कानूनन सही नहीं ठहराया जा सकता। प्रतिवादी का दृष्टिकोण याचिकाकर्ता के वैध अनुरोध पर संतुलित विचार करने के बजाय ‘यांत्रिक अस्वीकृति’ (Mechanical Rejection) को दर्शाता है और यह CCL योजना के लाभकारी उद्देश्य की अवहेलना है।”
कोर्ट ने इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के काकली घोष बनाम मुख्य सचिव, अंडमान और निकोबार प्रशासन के फैसले का भी हवाला दिया।
असहमति नोट की वैधता पर: सीसीएस (सीसीए) नियम, 1965 के नियम 15(2) का विश्लेषण करते हुए, कोर्ट ने जोर दिया कि असहमति नोट “अस्थायी” होना चाहिए। कोर्ट ने पाया कि वर्तमान मामले में नोट में “आरोपी की ओर से सिद्ध कदाचार” (substantiated misdemeanor) दर्ज किया गया था, जो अंतिम निर्णय जैसा प्रतीत होता है।
कोर्ट ने कहा, “इस तरह का पूर्व-निर्णय याचिकाकर्ता के प्रतिनिधित्व पर बाद के विचार को केवल एक औपचारिकता बना देता है। इसलिए, नियम 15(2) में निहित अनिवार्य प्रक्रियात्मक सुरक्षा के अनुपालन न करने के कारण यह प्रक्रिया दूषित हो गई है।”
डबल जियोपार्डी और छुट्टी का नियमितीकरण: कोर्ट ने ‘डबल जियोपार्डी’ के संबंध में याचिकाकर्ता की दलील को स्वीकार किया। सुप्रीम कोर्ट के स्टेट ऑफ पंजाब बनाम बख्शीश सिंह के फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा:
“इसके अतिरिक्त, हमें याचिकाकर्ता के विद्वान वकील की इस दलील में भी दम नजर आता है कि 11.03.2014 से 08.08.2014 तक की अनुपस्थिति की अवधि को EOL के रूप में नियमित किए जाने के बाद, इसे विभागीय कार्यवाही का विषय नहीं बनाया जा सकता था।”
दंड की आनुपातिकता (Proportionality) पर: कोर्ट ने पाया कि वेतन कटौती का दंड पूरी तरह से अनुपातहीन (Disproportionate) था, क्योंकि आरोपों में कोई नैतिक अधमता या भ्रष्टाचार शामिल नहीं था। कोर्ट ने कहा कि यह दंड “इस न्यायालय की अंतरात्मा को झकझोरता है।”
निर्णय
दिल्ली हाईकोर्ट ने रिट याचिका को स्वीकार करते हुए 29 जून 2021 के ट्रिब्यूनल के आदेश और 23 सितंबर 2019 के दंड आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने प्रतिवादी को निर्देश दिया कि वह आठ सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ता का वेतन और परिणामी सेवा लाभ बहाल करे।
केस शीर्षक: रितु रवि प्रकाश बनाम भारत संघ केस नंबर: W.P.(C) 15193/2021 फैसले की तारीख: 20.11.2025 कोरम: जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस मधु जैन




