दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि बच्चे की कस्टडी से जुड़े मामलों में प्रमुख और सर्वोपरि विचार अभिभावकों के अधिकार नहीं, बल्कि नाबालिग का कल्याण है। अदालत ने स्पष्ट किया कि बच्चे के कल्याण में उसके शारीरिक, भावनात्मक, नैतिक और शैक्षिक पहलुओं का समग्र आकलन शामिल है।
न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने यह टिप्पणी एक पिता की याचिका खारिज करते हुए की, जिसमें उसने अपने नाबालिग पुत्र की स्थायी कस्टडी मांगी थी। पिता ने दलील दी थी कि वह और उसका परिवार बच्चे की चिकित्सीय आवश्यकताओं और समुचित देखभाल के लिए अधिक सक्षम हैं।
13 अगस्त के आदेश में पीठ ने कहा कि वित्तीय स्थिरता प्रासंगिक अवश्य है, लेकिन यह निर्णायक कारक नहीं हो सकता। अदालत ने पाया कि नाबालिग पहले से ही अपनी मां के साथ स्थिर और सुरक्षित वातावरण में रह रहा है और केवल इस आधार पर कि दूसरा अभिभावक आर्थिक रूप से बेहतर है, बच्चे को वहां से हटाना उसके हित में नहीं होगा।

अदालत ने यह भी नोट किया कि बच्चे की इच्छा, भले ही अंतिम निर्णय का आधार न बने, लेकिन यह दर्शाती है कि वह अपनी मां के साथ भावनात्मक रूप से सुरक्षित और निरंतर देखभाल पा रहा है। फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि कस्टडी से जुड़े निर्णयों में हमेशा नाबालिग के कल्याण को ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए, न कि अभिभावकों के व्यक्तिगत अधिकारों को।