दिल्ली की एक अदालत ने एक व्यक्ति पर ₹10,000 का जुर्माना लगाते हुए उसकी पुनर्विचार याचिका को “मनमानी” करार दिया और कहा कि न्याय तक उदार पहुंच को “अराजकता और अनुशासनहीनता” फैलाने का लाइसेंस नहीं समझा जाना चाहिए। अदालत ने यह भी चेताया कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वाले “धनी याचिकाकर्ताओं” की बढ़ती प्रवृत्ति न्याय प्रणाली पर बोझ डालती है और अन्य मामलों में न्याय में देरी का कारण बनती है।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश सौरभ प्रताप सिंह ललर ने यह आदेश उस समय पारित किया जब उन्होंने कपिल अरोड़ा नामक व्यक्ति की पुनर्विचार याचिका खारिज की। अरोड़ा ने जीएसटी चोरी के एक मामले में गिरफ्तारी के बाद कथित तौर पर उनकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाए जाने को लेकर मुआवजे की मांग की थी।
अरोड़ा को अक्टूबर 2024 में केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर (CGST) विभाग ने 2018 से 2024 के बीच ₹1,284 करोड़ की कथित बिक्री से उत्पन्न कर देनदारी से बचने के आरोप में गिरफ्तार किया था। उनके खिलाफ करीब ₹200 करोड़ की जीएसटी चोरी का मामला है। उन्हें 27 नवंबर 2024 को सत्र न्यायालय से जमानत मिल गई थी, लेकिन ज़मानत शर्तों की पुष्टि और एक लिपिकीय त्रुटि के कारण उनकी रिहाई 29 नवंबर तक टल गई।

मजिस्ट्रेट अदालत ने मामले की जांच के बाद पाया कि अदालत के कर्मचारियों की कोई जानबूझकर लापरवाही नहीं थी और इस कारण अरोड़ा की मुआवजे की मांग पहले ही खारिज कर दी गई थी। इसके बावजूद अरोड़ा ने सत्र अदालत में पुनर्विचार याचिका दाखिल की, जिसे न्यायाधीश ललर ने 9 जून को खारिज कर दिया।
न्यायाधीश ने टिप्पणी की, “मामला वहीं समाप्त हो जाना चाहिए था। यदि पुनर्विचार याचिकाकर्ता को लगता था कि देरी जानबूझकर की गई, तो उचित उपाय यह होता कि वह अदालत प्रशासन से प्रशासनिक पक्ष में संपर्क करता—ना कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करता।”
जज ललर ने अरोड़ा की याचिका को मजिस्ट्रेट अदालत और सीजीएसटी अधिकारियों पर दबाव बनाने का एक छिपा हुआ प्रयास बताया और कहा कि इस प्रकार का आचरण न्यायिक कार्यवाही की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। उन्होंने कहा, “यह अदालत पुनर्विचार याचिकाकर्ता के दुर्भावनापूर्ण और लापरवाह दृष्टिकोण को लेकर गहरी चिंता और निराशा व्यक्त करती है। ऐसी याचिकाओं पर ठोस दंड लगाया जाना चाहिए।”
अदालत ने आगे कहा कि, “समृद्ध याचिकाकर्ताओं द्वारा गैर-जरूरी मुकदमेबाज़ी को प्रोत्साहित करने से न्याय प्रणाली पर अनावश्यक दबाव पड़ता है, जिससे अन्य मामलों की सुनवाई में देरी होती है।”
उक्त टिप्पणियों के साथ अदालत ने अरोड़ा की याचिका खारिज करते हुए उस पर ₹10,000 का जुर्माना लगाया, जिससे भविष्य में इस प्रकार की मनमानी याचिकाओं को हतोत्साहित किया जा सके।