पिता द्वारा वर्षों पहले समझौता किए जाने के बावजूद बेटी अपना हिस्सा परिवारिक संपत्ति में दावा कर सकती है: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि पिता द्वारा किया गया पुराना समझौता (Compromise Decree) बेटी को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) के तहत पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से का दावा करने से नहीं रोक सकता। कोर्ट ने कहा कि यदि बेटी उस समझौते में पक्षकार नहीं थी और उस समय नाबालिग थी, तो उसके मुकदमे को शुरुआती चरण में ही खारिज नहीं किया जा सकता।

जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश (Single Judge) के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें ‘संजय गुप्ता बनाम सोनाक्षी गुप्ता और अन्य’ (FAO(OS) 37/2025) के मामले में वाद (Suit) को खारिज करने की मांग को ठुकरा दिया गया था।

मामले की पृष्ठभूमि (Case Background)

यह मामला प्रतिवादी नंबर 1, सुश्री सोनाक्षी गुप्ता द्वारा दायर किए गए एक दीवानी मुकदमे (CS(OS) 1965/2012) से जुड़ा है। उन्होंने “एल.आर. गुप्ता एचयूएफ” (L.R. Gupta HUF) की संपत्तियों में विभाजन, हिसाब-किताब और निषेधाज्ञा (Injunction) की मांग की थी।

सोनाक्षी गुप्ता का दावा है कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की धारा 6 के तहत वह संयुक्त हिंदू परिवार (Joint Hindu Family) में एक सहदायिक (Coparcener) हैं। उन्होंने दलील दी कि उनका ‘कॉज ऑफ एक्शन’ (वाद का कारण) 9 सितंबर 2005 को कानून में संशोधन के साथ शुरू हुआ और 18 मई 2009 को उनके बालिग होने पर और पुख्ता हो गया। उनका आरोप था कि प्रतिवादी उनकी सहमति के बिना एचयूएफ की संपत्तियों को बेच रहे थे और नवंबर 2011 व मार्च 2012 में उनके विभाजन की मांग को अस्वीकार कर दिया गया था।

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अपीलकर्ता संजय गुप्ता (मुकदमे में प्रतिवादी नंबर 2) और अन्य ने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VII नियम 11 के तहत आवेदन दायर कर इस मुकदमे को खारिज करने की मांग की थी। उनका कहना था कि कानूनन यह मुकदमा चलने योग्य नहीं है।

पक्षों की दलीलें (Arguments)

अपीलकर्ता का तर्क: वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष वशिष्ठ ने अपीलकर्ता की ओर से तर्क दिया कि परिवार की शाखाओं के बीच विवाद पहले ही सुलझ चुका है। उन्होंने 9 जनवरी 2006 को पिछले मुकदमे (CS 1968/2003) में पारित एक समझौता डिक्री (Compromise Decree) का हवाला दिया, जिसमें यह दर्ज था कि परिवार की शाखाएं 1993 में ही अलग हो चुकी थीं।

अपीलकर्ता के मुख्य तर्क थे:

  1. मौजूदा मुकदमा 2006 की डिक्री को दी गई एक “अप्रत्यक्ष चुनौती” (Collateral Challenge) है, जिसे वादी के पिता ने अपने बच्चों के माध्यम से खड़ा किया है।
  2. भले ही वादी अपने पिता के एचयूएफ में सहदायिक हो, लेकिन वह बड़े “एल.आर. गुप्ता एचयूएफ” के खिलाफ दावा नहीं कर सकती क्योंकि वह अब अस्तित्व में नहीं है।
  3. चूंकि 2006 की डिक्री को सीधे चुनौती नहीं दी गई है, इसलिए सीपीसी के आदेश VII नियम 11(d) के तहत मुकदमा खारिज होना चाहिए।

प्रतिवादी (सोनाक्षी गुप्ता) का तर्क: वादी के वकील ने एकल न्यायाधीश के फैसले का समर्थन करते हुए कहा:

  1. 2006 का समझौता उनके पिता और अन्य प्रतिवादियों के बीच था। चूंकि वह उस समय नाबालिग थीं और उस समझौते में पक्षकार नहीं थीं, इसलिए वह समझौता उन पर बाध्यकारी (Binding) नहीं है।
  2. संशोधित हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत उन्हें सहदायिक के रूप में एक स्वतंत्र वैधानिक अधिकार प्राप्त है।
  3. प्रतिवादियों द्वारा संपत्ति बेचने और निर्माण कार्य जारी रखने से “लगातार वाद का कारण” (Continuing Cause of Action) उत्पन्न हो रहा है।
  4. अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए मुद्दे सुनवाई (Trial) का विषय हैं, जिन्हें शुरुआती चरण में तय नहीं किया जा सकता।
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कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय (Court’s Analysis and Decision)

खंडपीठ ने सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के दायरे की जांच की और दोहराया कि इस चरण में केवल अर्जी (Plaint) को समग्र रूप से और “सार्थक तरीके से पढ़ा जाना चाहिए, न कि अति-तकनीकी रूप से।”

कॉज ऑफ एक्शन पर: कोर्ट ने पाया कि अर्जी के पैरा 68 में वादी ने उन परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन किया है जिनसे उनका दावा बनता है। इसमें 2005 के संशोधन का लागू होना, उनका बालिग होना और विभाजन से इनकार किया जाना शामिल है।

कोर्ट ने कहा:

“सीपीसी के आदेश VII नियम 11(a) के सीमित उद्देश्य के लिए, अर्जी में वाद का कारण (Cause of Action) स्पष्ट रूप से मौजूद है, और एकल न्यायाधीश ने इसे सही माना है।”

2006 के समझौते पर: अपीलकर्ता की इस दलील पर कि यह मुकदमा पुराने समझौते को चुनौती है, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वादी उस समझौते का हिस्सा नहीं थीं।

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“वादी 09.01.2006 की समझौता डिक्री में पक्षकार नहीं थीं, जिसने उनके पिता और अन्य प्रतिवादियों के बीच विवादों का निपटारा किया था। उस समय वह नाबालिग थीं, इसलिए उनके लिए ऐसी डिक्री को रद्द करने की मांग करना आवश्यक नहीं था जो शायद उन पर बाध्यकारी ही न हो।”

खंडपीठ ने आगे कहा कि चूंकि वादी ने विभाजन (Partition) की मांग की है, जो कि केवल घोषणा (Declaration) से बड़ी राहत है, इसलिए 2006 की डिक्री को रद्द करने की विशिष्ट प्रार्थना “अपरिहार्य नहीं है।”

फैसला: कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता की दलीलें उनके बचाव (Defence) और तथ्यात्मक विवादों से संबंधित हैं, जिन्हें बिना गवाही और सुनवाई के तय नहीं किया जा सकता। क्या एचयूएफ अस्तित्व में था या संपत्तियां सहदायिक प्रकृति की थीं, यह साक्ष्य का विषय है।

अपील को खारिज करते हुए खंडपीठ ने कहा:

“सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत अधिकार क्षेत्र, जो कार्यवाही को शुरू में ही समाप्त करने की एक कठोर शक्ति है, का उपयोग तब नहीं किया जा सकता जब अर्जी में ऐसा वाद का कारण हो जिस पर न्यायिक निर्णय की आवश्यकता हो।”

केस विवरण:

  • केस टाइटल: संजय गुप्ता बनाम सोनाक्षी गुप्ता और अन्य
  • केस नंबर: FAO(OS) 37/2025
  • कोरम: जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर

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