भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311 के अंतर्गत गवाहों को बुलाने या पुनः बुलाने की न्यायालय को प्राप्त शक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि इस शक्ति का प्रयोग “केवल ठोस और वैध कारणों पर ही अत्यंत सावधानी और विवेक के साथ किया जाना चाहिए।” न्यायालय ने यह भी कहा कि इस प्रावधान का दुरुपयोग कर मुकदमे की कार्यवाही को विलंबित करने या न्याय की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
यह निर्णय ‘अशुतोष पाठक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य’ [SLP (Crl.) No. 10852 of 2024] में जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ द्वारा सुनाया गया, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) के उस आदेश को बरकरार रखा गया, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा एक गवाह की पुनः जांच की अनुमति आंशिक रूप से अस्वीकृत करते हुए गवाही का अवसर समाप्त कर दिया गया था।
मामला पृष्ठभूमि
प्रकरण का प्रारंभ 30 अप्रैल 2018 को दर्ज एफआईआर से हुआ, जो याचिकाकर्ता की पत्नी शिखा पाठक द्वारा दहेज उत्पीड़न और जान से मारने की धमकी के आरोपों के तहत दर्ज कराई गई थी। प्राथमिकी भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए, 323, 504, 506 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के अंतर्गत दर्ज की गई थी। शिकायत में आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता के मित्र विनय कुमार पाठक द्वारा सुलह के बहाने बुलाए जाने के बाद शिकायतकर्ता को उसकी मां और बच्चों के साथ रसोई में बंद कर दिया गया और उन्हें जिंदा जलाने की धमकी दी गई। तत्पश्चात पुलिस ने उन्हें मुक्त कराया।
इस मामले में 16 गवाहों की सूची बनाई गई, जिनमें विनय कुमार पाठक और कनक लता सिंह भी शामिल थे। अभियोजन ने केवल तीन गवाहों की जांच की, जिसके बाद 2023 में याचिकाकर्ता ने धारा 311 सीआरपीसी के अंतर्गत विनय और कनक लता को स्वतंत्र गवाहों के रूप में बुलाने की अर्जी दाखिल की।
ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट की कार्यवाही
ट्रायल कोर्ट ने 18 मई 2024 को याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए केवल विनय कुमार पाठक को समन जारी किया। परंतु 30 मई 2024 को जब मामला रक्षा साक्ष्य के लिए सूचीबद्ध हुआ, कोई कार्यवाही दर्ज नहीं हुई। 5 जून को, जबकि गवाह उपस्थित था, याचिकाकर्ता ने वकील की तबीयत खराब होने का हवाला देकर स्थगन मांगा, जिसे ₹1,000 के जुर्माने सहित स्वीकार किया गया। 6 जून को गवाह उपस्थित नहीं हुआ और ट्रायल कोर्ट ने गवाही का अवसर समाप्त कर दिया।
इसके विरुद्ध याचिकाकर्ता ने धारा 482 सीआरपीसी के तहत हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसे 3 जुलाई 2024 को खारिज कर दिया गया। इसी आदेश को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका (SLP) सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि विनय और कनक लता दोनों अभियोजन गवाहों की सूची में शामिल थे तथा शिकायतकर्ता की गवाही में भी इनका उल्लेख हुआ था। इसलिए यह अभियोजन का दायित्व था कि वह विनय कुमार पाठक की मुख्य परीक्षा कराता। ट्रायल कोर्ट द्वारा गवाही का अवसर समाप्त किया जाना आपराधिक प्रक्रिया के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध बताया गया।
वहीं, उत्तरदाता संख्या 2 (शिकायतकर्ता) की ओर से तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता जानबूझकर मुकदमे को विलंबित कर रहा था। शिकायतकर्ता की जिरह 2020–2021 में पूर्ण हो चुकी थी और धारा 313 के अंतर्गत बयान मई 2023 में दर्ज किए जा चुके थे। ट्रायल कोर्ट पूर्व में ही धारा 311 के अंतर्गत एक आवेदन को अस्वीकार कर चुका था। अब याचिकाकर्ता उस प्रक्रिया का दुरुपयोग कर मुकदमे को अनावश्यक रूप से लंबा कर रहा है।
उत्तर प्रदेश राज्य ने भी शिकायतकर्ता का समर्थन करते हुए याचिका को निराधार बताया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
पीठ ने याचिका को खारिज करते हुए धारा 311 की भाषा और पूर्ववर्ती न्यायिक निर्णयों का अध्ययन किया। Satbir Singh बनाम हरियाणा राज्य, (2023 SCC OnLine SC 1086), रतनलाल बनाम प्रहलाद जाट, तथा जहीरा हबीबुल्लाह शेख (5) बनाम गुजरात राज्य जैसे निर्णयों का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया:
“इस धारा के अंतर्गत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग तब नहीं किया जाना चाहिए जब न्यायालय को यह प्रतीत हो कि याचिका विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करते हुए दायर की गई है… न्यायालय को इस प्रावधान के तहत गवाह को पुनः बुलाने के लिए बार-बार याचिकाएं दायर करने को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।”
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि धारा 311 के अंतर्गत शक्ति व्यापक और विवेकाधीन है, परंतु इसका प्रयोग न्यायसंगत ढंग से किया जाना चाहिए, मनमाने रूप में नहीं। पीठ ने यह भी अस्वीकार किया कि अभियोजन पर विनय कुमार पाठक की गवाही कराने की बाध्यता थी, यह दर्शाया कि उसे तो याचिकाकर्ता द्वारा रक्षा गवाह के रूप में बुलाया गया था।
न्यायालय ने टिप्पणी की:
“उपरोक्त घटनाक्रम से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि बचाव पक्ष को गवाह की जांच हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान किया गया था… हम इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि अभियोजन पर यह दायित्व था कि वह उसे पेश करता।”
साथ ही पीठ ने याचिकाकर्ता के आचरण की आलोचना करते हुए कहा:
“याचिकाकर्ता द्वारा धारा 311 के अंतर्गत बार-बार याचिकाएं दाखिल करना और बार-बार स्थगन मांगना, उसके टालमटोल वाले रवैये, असहयोग एवं मुकदमे के शीघ्र निष्पादन में अरुचि को दर्शाता है। यह न्यायालय विधिक प्रक्रिया के इस प्रकार के दुरुपयोग का हिस्सा नहीं बन सकता।”
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को निराधार पाते हुए खारिज कर दिया और हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा। यह निर्णय इस बात को दोहराता है कि धारा 311 सीआरपीसी के अंतर्गत गवाहों को तलब करने या पुनः बुलाने की शक्ति का प्रयोग केवल विशिष्ट और आवश्यक परिस्थितियों में, अत्यंत सावधानीपूर्वक और न्यायिक विवेक के साथ किया जाना चाहिए, न कि मुकदमे को टालने हेतु।
कोई लागत नहीं लगाई गई।
प्रकरण शीर्षक: अशुतोष पाठक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, विशेष अनुमति याचिका (फौजदारी) संख्या 10852 / 2024