पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति महाबीर सिंह सिंधु ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा दर्ज मनी लॉन्ड्रिंग मामले में याचिकाकर्ता बलवंत सिंह की न्यायिक रिमांड को रद्द कर दिया। न्यायालय ने जोर देकर कहा कि न्यायिक अधिकारियों को अपनी स्वतंत्र विवेकशीलता का उपयोग करना चाहिए और “जांच एजेंसियों के विस्तार” के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना न्यायपालिका का दायित्व है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला मेसर्स तारा कॉरपोरेशन लिमिटेड (टीसीएल) से जुड़ा है, जिसे अब मलौध एग्रो लिमिटेड के नाम से जाना जाता है। इस कंपनी ने लुधियाना स्थित बैंक ऑफ इंडिया से ₹46 करोड़ का ऋण लिया था। आरोप है कि कंपनी ने ऋण चुकाने में विफलता दिखाई, जिससे 2014 में इस खाते को गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) घोषित कर दिया गया। बैंक के अनुसार ₹40.92 करोड़ का बकाया था।
विभिन्न शिकायतों और जांच के बाद, ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग निवारण अधिनियम (पीएमएलए), 2002 के तहत मामला दर्ज किया। आरोप था कि याचिकाकर्ता और अन्य लोगों ने ऋण की राशि को फर्जी कंपनियों में ट्रांसफर किया।
ईडी की शिकायत में बलवंत सिंह और छह अन्य लोगों का नाम शामिल किया गया, जिसे 4 जनवरी 2024 को दायर किया गया था। ईडी का आरोप था कि बलवंत सिंह ने बार-बार समन भेजे जाने के बावजूद जांच में सहयोग नहीं किया, जिससे उनकी हिरासत में पूछताछ आवश्यक हो गई।
कानूनी मुद्दे और दलीलें
याचिकाकर्ता के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता विक्रम चौधरी और उनकी टीम ने निम्नलिखित तर्क दिए:
- हिरासत में पूछताछ के आधार की कमी: ईडी की हिरासत याचिका में कोई नए सबूत या ठोस आधार नहीं थे। यह केवल पहले से मौजूद सामग्रियों पर आधारित थी, जिससे यह याचिका अनावश्यक थी।
- कानूनी नजीर का उल्लंघन: हिरासत रिमांड सर्वोच्च न्यायालय के “तर्सेम लाल बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2024)” मामले के दिशा-निर्देशों के विपरीत थी, जिसमें हिरासत के लिए पर्याप्त तर्क आवश्यक बताए गए थे।
- न्यायिक अतिरेक: विशेष अदालत ने यांत्रिक ढंग से रिमांड आदेश पारित किया, जिसमें पर्याप्त कारण नहीं बताए गए।
वहीं, भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सत्य पाल जैन ने तर्क दिया कि सिंह का गैर-सहयोग जांच में बाधा उत्पन्न कर रहा था, और मनी ट्रेल और अपराध की आय का पता लगाने के लिए उनकी हिरासत आवश्यक थी।
न्यायालय की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति सिंधु ने मामले में कई खामियां उजागर करते हुए विस्तृत निर्णय दिया:
- न्यायिक तर्क का अभाव: रिमांड आदेश दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 309 और पीएमएलए के प्रावधानों के अनुसार कानूनी मानकों को पूरा करने में विफल रहा। न्यायालय ने कहा, “विशेष अदालत ने हिरासत रिमांड को सामान्य तरीके से मंजूरी दी, जो अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा उपायों को नकारती है।”
- कानूनी नजीर का अनुपालन नहीं: अदालत ने पाया कि तर्सेम लाल मामले में तय किए गए सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया और हिरासत के लिए कोई ठोस कारण दर्ज नहीं किए गए।
- प्रक्रियात्मक सुरक्षा का उल्लंघन: ईडी यह साबित करने में विफल रहा कि बलवंत सिंह की शारीरिक हिरासत क्यों आवश्यक है, जबकि वैकल्पिक जांच उपाय उपलब्ध थे।
महत्वपूर्ण निर्णय के अंश
न्यायमूर्ति सिंधु ने कहा:
- “पीएमएलए के तहत विशेष अदालतों में तैनात न्यायिक अधिकारी केवल जांच एजेंसियों के विस्तार के रूप में कार्य नहीं कर सकते; उन्हें स्वतंत्र और न्यायिक विवेक का उपयोग करना चाहिए।”
- “यदि मामले पर समुचित ध्यान दिया गया होता, तो याचिकाकर्ता को ईडी या न्यायिक हिरासत में भेजने का कोई कारण नहीं था।”
न्यायालय ने विशेष अदालत के 5 अक्टूबर 2024 के आदेश और उसके बाद पारित रिमांड आदेशों को कानून की दृष्टि से असंवेदनशील बताते हुए रद्द कर दिया। बलवंत सिंह की तत्काल रिहाई का आदेश दिया गया, बशर्ते उन्होंने पहले से प्रस्तुत जमानत और सुरक्षा बांड की शर्तें पूरी की हों।
आगे की कार्रवाई और निर्देश
याचिकाकर्ता की रिहाई के साथ, हाईकोर्ट ने विशेष अदालत के आदेश के अपलोडिंग में हुई प्रक्रियात्मक त्रुटियों की जांच के लिए रजिस्ट्रार (विजिलेंस) को दो महीने के भीतर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में न्यायिक अधिकारियों को प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का कड़ाई से पालन करना चाहिए।