दक्षिण मुंबई के जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि अदालतों के प्रशासनिक और न्यायिक कार्य उपभोक्ता कानून के दायरे में नहीं आते। आयोग ने एक विधि स्नातक द्वारा बॉम्बे सिटी सिविल एंड सेशंस कोर्ट के रजिस्ट्रार के खिलाफ दायर शिकायत को खारिज कर दिया।
आयोग ने कहा कि अदालतें कोई व्यावसायिक संस्था नहीं हैं जो लाभ कमाने के उद्देश्य से प्रमाणित प्रतियां उपलब्ध कराती हों। अदालतों का कार्य न्याय प्रदान करना और न्यायिक अभिलेखों का संधारण करना है, न कि कोई व्यावसायिक सेवा देना।
यह शिकायत वर्ष 2018 में एक 27 वर्षीय विधि स्नातक द्वारा दायर की गई थी। शिकायतकर्ता का आरोप था कि एक दीवानी वाद से जुड़े दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां समय पर उपलब्ध नहीं कराई गईं, जिससे सेवा में कमी हुई। वह वर्ष 2002 के एक मुकदमे की कार्यवाही की प्रतियां चाहता था और इसके लिए उसने प्रारंभिक रूप से 200 रुपये जमा किए थे।
11 दिसंबर को पारित आदेश में उपभोक्ता आयोग ने कहा कि किसी वादकारी और अदालत की रजिस्ट्री के बीच संबंध को सामान्य अर्थों में न तो संविदात्मक कहा जा सकता है और न ही व्यावसायिक। आयोग के अनुसार यह संबंध विधिक प्रावधानों, प्रक्रिया नियमों और सिविल मैनुअल द्वारा नियंत्रित होता है, न कि उपभोक्ता संरक्षण कानून द्वारा।
आयोग ने स्पष्ट किया कि उपभोक्ता मंच न्यायालयों के आंतरिक प्रशासन या न्यायिक कार्यप्रणाली की निगरानी के लिए नहीं बनाए गए हैं। आयोग ने टिप्पणी की कि यह शिकायत एक प्रशासनिक या न्यायिक प्रकृति के विवाद को उपभोक्ता विवाद में बदलने का प्रयास है, जिसकी अनुमति कानून नहीं देता।
मामले की सुनवाई के दौरान रजिस्ट्रार की ओर से बताया गया कि शिकायतकर्ता मूल वाद का पक्षकार नहीं था और ऐसे में प्रमाणित प्रतियां देने के लिए न्यायालय का आदेश आवश्यक था। इसके अलावा, प्रतियों के लिए देय 274 रुपये की कमी राशि का भुगतान न होने के कारण भी विलंब हुआ। आयोग ने माना कि न्यायालय का आदेश मिलने के बाद आवेदन पर तत्काल कार्रवाई की गई।
आयोग ने कहा कि प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करना एक वैधानिक अधिकार है, न कि किसी सेवा को ‘किराए पर लेना’। इसलिए शिकायतकर्ता उपभोक्ता की परिभाषा में भी नहीं आता। आदेश में यह भी कहा गया कि अदालत की रजिस्ट्री से संबंधित शिकायतों के लिए उचित उपाय न्यायिक व्यवस्था के भीतर ही उपलब्ध हैं, जैसे संबंधित न्यायाधीश के समक्ष आवेदन करना, अतिरिक्त रजिस्ट्रार से शिकायत करना या उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करना।
इन सभी तथ्यों और विधिक पहलुओं पर विचार करते हुए आयोग ने यह निष्कर्ष निकाला कि न्यायिक प्रशासन से जुड़े मामलों पर उपभोक्ता मंच को अधिकार नहीं है और शिकायत तथ्य और कानून, दोनों आधारों पर अस्वीकार्य है।

