न्यायमूर्ति पंकज भाटिया की अध्यक्षता वाली इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) ने एक महत्वपूर्ण फैसले में ऋण वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटी) द्वारा पारित कथित रूप से दुर्भावनापूर्ण आदेश को खारिज कर दिया, तथा इसकी पुनः जांच करने तथा केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को कदाचार के मामले में आगे की जांच करने का निर्देश दिया। यह निर्णय दो जुड़ी हुई याचिकाओं के संबंध में दिया गया: अनुच्छेद 227 के अंतर्गत मामले संख्या 5381/2024 और WRIT-C संख्या 9357/2024।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 18 सितंबर, 2024 को DRT द्वारा जारी किए गए एक आदेश से उत्पन्न हुआ, जिसे बाद में 27 सितंबर, 2024 को एक शुद्धिपत्र के माध्यम से संशोधित किया गया। ये याचिकाएँ बैंक ऑफ़ बड़ौदा द्वारा दायर की गई थीं, जिसका प्रतिनिधित्व इसके अधिकृत अधिकारी विनय अग्रवाल और एक अन्य याचिकाकर्ता हर्षल गुप्ता ने किया था, जिसमें DRT के निर्णय लेने में अनियमितताओं का आरोप लगाया गया था। याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत कुमार श्रीवास्तव, आशीष चतुर्वेदी और शोभित हर्ष शामिल थे, जबकि प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व सैयद मोहम्मद मुस्तफा, अपूर्व देव और अन्य ने किया था।
मुख्य विवाद प्रक्रियात्मक अनियमितता और विवादित आदेश जारी करने में दुर्भावनापूर्ण इरादे के आरोपों के इर्द-गिर्द घूमता था। हाईकोर्ट ने पहले सीबीआई से एक रिपोर्ट मांगी थी, जिसमें अनियमितताओं की पुष्टि की गई थी और ऋण वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटी) के पूर्व पीठासीन अधिकारी के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों को भी इसमें शामिल किया गया था।
कानूनी मुद्दे और अवलोकन
हाईकोर्ट द्वारा संबोधित किए गए प्रमुख मुद्दों में शामिल हैं:
1. डीआरटी के आदेशों की वैधता: न्यायालय ने जांच की कि क्या 18 सितंबर, 2024 का विवादित आदेश कानून के अनुसार पारित किया गया था।
2. कथित कदाचार की जांच: इसने सीबीआई की प्रारंभिक रिपोर्ट के निष्कर्षों की जांच की, जिसमें न्यायाधिकरण के अधिकारियों और अन्य लोगों द्वारा मिलीभगत और कदाचार का आरोप लगाया गया था।
3. अधिकार क्षेत्र और रिमांड: न्यायालय ने इस बात पर विचार किया कि क्या मामले को नए सिरे से निर्णय के लिए डीआरटी को वापस भेजा जाना चाहिए।
हाईकोर्ट ने सीबीआई रिपोर्ट के निष्कर्षों पर ध्यान देते हुए टिप्पणी की, “आदेश बाद में दुर्भावनापूर्ण तरीके से प्राप्त किया गया था और डीआरटी द्वारा अवैध रूप से जारी किया गया था।” इसने माना कि आरोपित आदेश में अनियमितता है और इसलिए यह वैधानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता।
मुख्य निर्णय
– डीआरटी के आदेशों को रद्द करना: मूल आदेश (18 सितंबर, 2024) और उसके शुद्धिपत्र (27 सितंबर, 2024) दोनों को अमान्य घोषित किया गया।
– नए निर्णय के लिए रिमांड: मामले को कानून के अनुसार और उचित सुनवाई के बाद नए सिरे से निर्णय के लिए डीआरटी को वापस भेज दिया गया।
– सीबीआई जांच का विस्तार: अदालत ने सीबीआई को एफआईआर दर्ज करने और दोषी पाए गए लोगों के कदाचार की जांच जारी रखने का निर्देश दिया, साथ ही दोषी पाए गए लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए आगे कदम उठाने का निर्देश दिया। अदालत ने सीबीआई को अपनी जांच के दौरान सामने आने पर इसी तरह के आरोपों की जांच करने की भी अनुमति दी।
यह निर्णय डीआरटी के विवादास्पद आदेश से पहले की मौजूदा स्थिति को बहाल करता है और मामले का वैध पुनर्मूल्यांकन करने का आदेश देता है। अदालत ने विवाद के गुण-दोषों पर विचार करने से परहेज किया और निष्पक्ष सुनवाई करने का काम डीआरटी पर छोड़ दिया।
हाईकोर्ट ने जवाबदेही की आवश्यकता पर भी जोर दिया, जिसमें कहा गया कि जांच के दौरान सामने आने वाले किसी भी अन्य कदाचार को अनदेखा नहीं किया जाएगा।
वकील और प्रतिनिधित्व
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व अनुभवी अधिवक्ता प्रशांत कुमार श्रीवास्तव, आशीष चतुर्वेदी और शोभित हर्ष ने किया, जबकि प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व सैयद मोहम्मद मुस्तफा, अपूर्व देव और अन्य ने किया। न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई सावधानीपूर्वक दलीलों ने इस निर्णायक निर्णय को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।