जब भारत में हाईकोर्ट के जजों का एक राज्य से दूसरे राज्य में तबादला होता है, तो उन्हें अपनी नई नियुक्ति से पहले फिर से शपथ लेनी होती है। लेकिन यह क्यों जरूरी है, जबकि वे पहले से ही न्यायपालिका में कार्यरत होते हैं?
इसका जवाब भारतीय संविधान में छिपा है, जो हर हाईकोर्ट की जजशिप को एक अलग संवैधानिक पद के रूप में मानता है। संविधान के अनुच्छेद 219 में स्पष्ट कहा गया है कि “हर व्यक्ति जिसे हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया जाता है, अपने पद पर आसीन होने से पहले शपथ या प्रतिज्ञान करेगा…”। यह शपथ, संविधान की तीसरी अनुसूची में निर्धारित रूप में, उस हाईकोर्ट के नाम के साथ होती है जहाँ वह नियुक्त हो रहा है।
जब अनुच्छेद 222 के तहत किसी जज का तबादला होता है, तो इसे तकनीकी रूप से उस जज के लिए एक नए संवैधानिक पद पर प्रवेश माना जाता है। भले ही यह पारंपरिक अर्थों में नई नियुक्ति न हो, अनुच्छेद 217(1)(c) स्पष्ट करता है कि तबादले के साथ ही पिछला पद रिक्त माना जाता है। इसलिए, अनुच्छेद 219 के तहत नई जगह शपथ लेना अनिवार्य होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने संकलचंद शेट बनाम भारत सरकार और एस.पी. गुप्ता बनाम भारत सरकार जैसे महत्वपूर्ण फैसलों में इस आवश्यकता की पुष्टि की है। अदालत ने माना है कि भले ही जज उच्चतर न्यायपालिका का ही हिस्सा बने रहते हैं, परंतु क्षेत्राधिकार के परिवर्तन के कारण उन्हें अपने संवैधानिक दायित्वों की औपचारिक पुनर्पुष्टि करनी होती है।
इतिहास में देखा जाए, तो 1950 से अब तक यह परंपरा निरंतर चली आ रही है, जिसमें हर स्थानांतरित जज को सार्वजनिक रूप से नए राज्य के राज्यपाल (या उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति) के समक्ष शपथ दिलाई जाती है। यहां तक कि इमरजेंसी जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील समय में भी इस परंपरा का पालन किया गया था।
असल में, यह शपथ सिर्फ एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक नए संवैधानिक दायित्व की शुरुआत का प्रतीक है, जो सभी राज्यों में संविधान और कानून के शासन के प्रति निष्ठा सुनिश्चित करता है।
लेखक:
डॉ. रजत राजन सिंह
अधिवक्ता