सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि यदि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 468 के तहत निर्धारित सीमा अवधि के बाहर किसी मामले में संज्ञान लिया जाता है, लेकिन उस देरी के लिए शिकायतकर्ता उत्तरदायी नहीं है और न्यायालय उस मामले को उपयुक्त मानता है, तो ऐसी स्थिति में संज्ञान पर रोक नहीं लगाई जा सकती। यह निर्णय धारा 473 CrPC के अंतर्गत न्यायालय की शक्ति के आधार पर दिया गया।
यह निर्णय न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने क्रिमिनल अपील संख्या 2734/2025 [SLP (Crl.) No. 1093/2025] — सिवनकुट्टी एवं अन्य बनाम पी.के. पत्रा — में दिया।
पृष्ठभूमि
इस मामले में अपीलकर्ता दिल्ली के साकेत कोर्ट की मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत वाद संख्या 13176/2018 में आरोपी बनाए गए थे। यह शिकायत 5 सितंबर 2018 को आईपीसी की धारा 323, 324, 341, 452, और 506, साथ ही धारा 34 के तहत दायर की गई थी।

हालांकि, मजिस्ट्रेट ने 27 सितंबर 2019 को केवल धारा 323 IPC के तहत ही संज्ञान लिया और अपीलकर्ताओं को जमानत दी। इस आदेश को शिकायतकर्ता ने चुनौती नहीं दी, जिससे यह अंतिम रूप से मान्य हो गया।
इसके पश्चात अपीलकर्ता दिल्ली हाईकोर्ट में धारा 482 CrPC के तहत यह कहकर पहुंचे कि घटना 5 सितंबर 2015 की है, जबकि संज्ञान 3 वर्षों के बाद लिया गया, जो कि CrPC की धारा 468 के तहत निषिद्ध है। हालांकि, हाईकोर्ट ने उनकी याचिका 5 दिसंबर 2024 को खारिज कर दी।
कानूनी प्रश्न और तर्क
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 323 IPC के अंतर्गत संज्ञान लेना, जबकि वह एक वर्ष से अधिक समय के बाद था, CrPC की धारा 468 के अंतर्गत निषिद्ध था।
हाईकोर्ट ने यह तर्क दिया कि शिकायत में धारा 452 IPC जैसे गंभीर अपराध शामिल थे (जिसकी सजा 7 वर्ष तक हो सकती है), इसलिए शिकायत पर सामान्य रूप से सीमा अवधि लागू नहीं होती।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के तर्क को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट किया कि:
“धारा 468(3) CrPC में उल्लिखित ‘साथ में विचारणीय अपराधों’ का प्रश्न तभी उत्पन्न होगा जब एक से अधिक अपराधों पर संज्ञान लिया गया हो।”
यहां, मजिस्ट्रेट ने केवल धारा 323 IPC के तहत संज्ञान लिया था, जिसकी अधिकतम सजा एक वर्ष है। इसलिए धारा 468(2)(b) के अनुसार, एक वर्ष की सीमा अवधि लागू थी।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया:
“धारा 468 CrPC में सीमा अवधि की गणना कब से शुरू हो, इसका कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, इसलिए यह अवधि अपराध की तिथि से ही मानी जाएगी, न कि शिकायत की तिथि से।”
सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी में कोर्ट ने कहा:
“यदि कोई शिकायतकर्ता सीमा अवधि के भीतर शिकायत करता है, लेकिन न्यायालय द्वारा प्रक्रिया या अन्य कारणों से देरी हो जाती है, तो ऐसी स्थिति में संज्ञान पर रोक लागू नहीं होगी। क्योंकि न्यायालय की त्रुटि से किसी को हानि नहीं होनी चाहिए।”
कोर्ट ने यह भी जोड़ा:
“धारा 473 CrPC के अंतर्गत यदि कोई उपयुक्त स्थिति हो, तो न्यायालय सीमा अवधि के बाहर भी संज्ञान ले सकता है।”
हालांकि, इस विशेष मामले में न तो धारा 473 CrPC के अंतर्गत कोई औचित्य प्रस्तुत किया गया और न ही मजिस्ट्रेट ने देरी को लेकर कोई ठोस कारण दिया।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए माना कि धारा 323 IPC के तहत लिया गया संज्ञान धारा 468 CrPC के अंतर्गत सीमा से बाहर था और इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। इस आधार पर, दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश और मजिस्ट्रेट का संज्ञान आदेश (दिनांक 27 सितंबर 2019) रद्द कर दिया गया।
साथ ही, शिकायत वाद संख्या 13176/2018 को निरस्त कर दिया गया।
मामला विवरण
- पीठ: न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन
- मामला शीर्षक: सिवनकुट्टी एवं अन्य बनाम पी.के. पत्रा
- मामला संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 2734/2025 [SLP (Crl.) No. 1093/2025 से उत्पन्न]
वकीलगण:
- अपीलकर्ताओं की ओर से: श्री अविजीत रॉय, श्री जुनैस पडलथ, श्री प्रसंथ कुलंबिल
- प्रतिवादी की ओर से: श्री दानिश ज़ुबैर खान, डॉ. लोकेन्द्र मलिक, श्री जॉर्ज पोथन पूथिकोटे, श्री मधुसूदन भायना