ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन बनाम भारत संघ, रिट याचिका (सी) संख्या 1022/1989 में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ — भारत के मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई, न्यायमूर्ति ए. जी. मसीह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन — ने न्यायिक सेवा में नियुक्ति और पदोन्नति से संबंधित आठ प्रमुख मुद्दों पर निर्णय सुनाया। इनमें से एक महत्वपूर्ण निर्णय में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा के लिए आवश्यक वकालत का अनुभव उस दिन से गिना जाएगा जब उम्मीदवार को स्टेट बार काउंसिल में प्रोविजनल नामांकन/पंजीकरण मिला था, न कि उस दिन से जब उसने ऑल इंडिया बार परीक्षा (AIBE) पास की।
विधिक प्रश्न
कोर्ट के समक्ष निम्नलिखित दो प्रमुख विधिक प्रश्न थे:
- क्या सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा में बैठने के लिए न्यूनतम तीन वर्ष की वकालत का अनुभव, जिसे पहले हटाया गया था, उसे पुनः लागू किया जाना चाहिए?
- यदि हाँ, तो क्या यह अनुभव प्रोविजनल नामांकन की तारीख से गिना जाए या AIBE पास करने की तारीख से?
इन दोनों प्रश्नों को निर्णय में मुद्दा संख्या 7 और 8 के रूप में रखा गया था।

पृष्ठभूमि
वरिष्ठ अधिवक्ता श्री बी.एच. मार्लापल्ले ने कोर्ट में यह तर्क रखा कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियमों के अनुसार उम्मीदवार को पहले दो वर्षों के लिए प्रोविजनल नामांकन मिलता है और उसके बाद AIBE पास करने पर ही स्थायी नामांकन दिया जाता है। इस पर विचार करते हुए कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों, हाईकोर्टों और भारत सरकार से इस मुद्दे पर हलफनामे मांगे थे।
जवाबों से पता चला कि अधिकतर राज्यों और हाईकोर्टों ने यह राय दी कि अनुभव की गणना प्रोविजनल नामांकन की तारीख से होनी चाहिए।
पक्षकारों की दलीलें
श्री मार्लापल्ले ने तर्क दिया कि जब तक उम्मीदवार AIBE पास नहीं कर लेता, तब तक उसे पूर्ण रूप से अधिवक्ता नहीं माना जा सकता, इसलिए अनुभव की गणना AIBE की तारीख से होनी चाहिए।
इसके विपरीत, अधिकांश हाईकोर्टों जैसे ओडिशा, पंजाब एवं हरियाणा, दिल्ली तथा जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख ने यह दलील दी कि प्रोविजनल नामांकन के बाद भी अधिवक्ता न्यायालयों में प्रैक्टिस करते हैं और व्यवहारिक अनुभव अर्जित करते हैं, अतः अनुभव की गणना उसी दिन से होनी चाहिए। कई हाईकोर्टों ने यह भी बताया कि बिना अनुभव के नियुक्त किए गए जज व्यवहार, कार्यशैली और न्यायिक प्रक्रिया को समझने में अक्षम पाए गए हैं।
कोर्ट का अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की 117वीं रिपोर्ट, शेट्टी आयोग की सिफारिशों, तथा AIJA मामलों में पूर्व निर्णयों के साथ-साथ विभिन्न हाईकोर्टों से प्राप्त अनुभवजन्य फीडबैक पर विचार किया। कोर्ट ने कहा:
“न्यायाधीशों को उनके कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति और प्रतिष्ठा से जुड़े मामलों पर निर्णय देना होता है… केवल पुस्तकीय ज्ञान या पूर्व-सेवा प्रशिक्षण, न्यायिक प्रक्रिया और अदालत की कार्यप्रणाली की प्रत्यक्ष जानकारी का विकल्प नहीं हो सकता।”
कोर्ट ने इस बात को रेखांकित किया कि युवा, अनुभवहीन अधिवक्ताओं के सीधे चयन से कई समस्याएं सामने आई हैं, और अधिकतर हाईकोर्टों ने न्यूनतम अनुभव की आवश्यकता को पुनर्स्थापित करने की सिफारिश की है।
निर्णय के अनुच्छेद 89 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“हम मानते हैं कि उम्मीदवारों को देश के किसी भी न्यायाधीश या न्यायिक अधिकारी के साथ लॉ क्लर्क के रूप में कार्य करते हुए जो अनुभव प्राप्त हुआ है, उसे उनके कुल वकालत अनुभव की गणना में शामिल किया जाना चाहिए। हम यह भी निर्णय देते हैं कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की परीक्षा में बैठने के इच्छुक उम्मीदवार द्वारा पूर्ण किए गए वकालत के वर्षों की गणना उस दिन से की जाए जब उसे संबंधित स्टेट बार काउंसिल से प्रोविजनल नामांकन/पंजीकरण प्राप्त हुआ हो।”