सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि कस्टडी से जुड़े मामलों में न्यायालय को पैरेन्स पैट्रिए (Parens Patriae) अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए माता-पिता के बीच के वैमनस्य और कटुता से ऊपर उठकर केवल बच्चे के सर्वांगीण कल्याण को केंद्र में रखना चाहिए। कर्नाटक हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली विशेष अनुमति याचिका (SLP) को खारिज करते हुए शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिया कि एक नाबालिग बच्ची का मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज़ (NIMHANS), बेंगलुरु में यथावत जारी रहेगा।
न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने 25 जून 2025 को एक तर्कयुक्त आदेश पारित किया, जिसमें कहा गया:
“न्यायालयों को उन बातों को समझने की आवश्यकता होती है जो सामान्य दृष्टि से नहीं देखी जा सकतीं, पंक्तियों के बीच छिपे संदेशों को पढ़ना होता है और माता-पिता के बीच की कटुता, घृणा और कड़वाहट की परतों को हटाकर सत्य के सार को पहचानना होता है। बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है, जो आदर्श रूप से दोनों माता-पिता और उनके परिवारों की संगति में ही संभव होता है।”

मामले की पृष्ठभूमि
विवाह के एक दशक बाद पति और पत्नी के बीच अलगाव हुआ और बच्ची माँ के साथ रहने लगी। पिता ने गार्जियन एंड वार्ड्स एक्ट के तहत बच्ची की कस्टडी और मुलाक़ात के अधिकारों के लिए अदालत का रुख किया। प्रारंभिक अंतरिम आदेश में माँ को कस्टडी दी गई और पिता को सीमित रूप से सप्ताह में एक बार वीडियो कॉल और हर पखवाड़े में दो घंटे मुलाक़ात की अनुमति दी गई।
बाद में पिता की याचिका पर कर्नाटक हाईकोर्ट ने गर्मी की छुट्टियों के दौरान बच्ची की आंशिक कस्टडी का आदेश दिया, जिसे माँ ने मानने से इनकार कर दिया। कोर्ट के बार-बार आदेशों के बावजूद बच्ची को पेश नहीं किया गया। जब बच्ची को प्रस्तुत किया गया, तो उसने पिता से मिलने से इनकार कर दिया और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया, जिसे न्यायालय ने “पैरेंटल एलियनेशन” और माँ द्वारा मानसिक रूप से प्रभावित किए जाने का परिणाम माना।
न्यायिक विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश से सहमति जताते हुए कहा कि माँ ने जानबूझकर अदालत के आदेशों की अवहेलना की और किसी भी प्रकार की सुलह प्रक्रिया का विरोध किया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि माँ द्वारा प्रस्तुत निजी मेडिकल प्रमाणपत्र से भी यह संकेत मिलता है कि बच्ची तनाव, चिड़चिड़ापन और चिंता से ग्रस्त है, जो माता-पिता के टूटे रिश्ते का प्रभाव है।
NIMHANS द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया:
“मनोवैज्ञानिक, कानूनी और पारिवारिक कारकों के जटिल समन्वय को ध्यान में रखते हुए, यह अनुशंसा की जाती है कि बच्ची को संरचित इन-पेशेंट केयर के लिए भर्ती किया जाए… इसका उद्देश्य केवल निदान की स्पष्टता और नैदानिक प्रबंधन है, ताकि उसकी दीर्घकालिक मानसिक भलाई और सर्वोत्तम हित की रक्षा की जा सके।”
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
शीर्ष अदालत ने यह आदेश दिया कि 4 जुलाई 2025 को सुबह 11:30 बजे जिला बाल संरक्षण अधिकारी, माँ के साथ मिलकर बच्ची को NIMHANS में मूल्यांकन हेतु ले जाएं। वहाँ उपस्थित चिकित्सक यह निर्णय लेंगे कि माँ को बच्ची के साथ ठहरने या मिलने की अनुमति दी जाए या नहीं। इसी प्रकार, पिता और बाल संरक्षण अधिकारी के मिलने की अनुमति भी चिकित्सकों के विवेक पर छोड़ दी गई।
मूल्यांकन पूरा होने के बाद NIMHANS को एक रिपोर्ट बंद लिफ़ाफ़े में कर्नाटक हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार (न्यायिक) को सौंपने का निर्देश दिया गया है। तब तक, पूर्ववर्ती आदेश के अनुसार, माँ के पास बच्ची की कस्टडी बनी रहेगी और पिता को मुलाक़ात की सुविधा डॉक्टरों की सिफारिशों के अनुसार दी जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि मूल्यांकन से जुड़ी सभी लागतें पिता द्वारा वहन की जाएंगी।
विशेष अनुमति याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“न्यायिक मस्तिष्क को उन आरोपों से ऊपर उठना होगा जो एक विफल विवाह से उपजे आक्रोश के परिणामस्वरूप लगाए जाते हैं और केवल बच्चे के हित को ध्यान में रखना होगा, जो आदर्श रूप में दोनों माता-पिता और उनके परिवारों की संगति से ही सर्वोत्तम रूप में सुरक्षित होता है।”
न्यायालय ने सभी लंबित आवेदनों को समाप्त करते हुए निर्देश दिया कि हाईकोर्ट NIMHANS की रिपोर्ट के आधार पर उचित आदेश पारित करे।