छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 2005 के एक हत्या मामले में 2010 में दिए गए बरी करने के फैसले को पलटते हुए महत्वपूर्ण निर्णय दिया है कि यदि किसी घायल चश्मदीद गवाह की गवाही विश्वसनीय हो और अन्य साक्ष्यों से उसकी पुष्टि होती हो, तो केवल मामूली विरोधाभासों के आधार पर उसे खारिज नहीं किया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश रामेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने सात अभियुक्तों को दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील अक्विटल अपील संख्या 407/2010 के रूप में राज्य सरकार द्वारा दाखिल की गई थी, जिसमें उत्तर बस्तर कांकेर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा 10.02.2010 को दिए गए निर्णय को चुनौती दी गई थी। उस समय सत्र प्रकरण संख्या 119/2008 में सभी अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 148 और 302/149 के आरोपों से बरी कर दिया गया था।
अभियोजन के अनुसार, 17-18 मार्च 2005 की रात लगभग 25 सशस्त्र नक्सलियों ने मृतक रघुनाथ के घर पर हमला किया। अभियुक्त सुरजराम, नोहर सिंह, धनिराम, दुर्जन, चैतराम, रमेश्वर और संतोष भी इस दल में मौजूद थे। मृतक का बेटा लच्छूराम, जो खुद भी घायल हुआ, ने एफआईआर दर्ज कराई।

आरोप है कि रघुनाथ को रस्सियों से बांधकर, डंडों और लात-घूंसों से पीट-पीट कर मार डाला गया। लच्छूराम को भी बांधकर पीटा गया और बाद में उसने ग्रामीणों को घटना की जानकारी दी। पोस्टमार्टम में सीने पर चाकू से वार और भीतरी रक्तस्राव को मृत्यु का कारण बताया गया, जिसे डॉक्टर ने हत्या बताया।
निचली अदालत का फैसला
ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्तों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया था। कोर्ट ने गवाहों की गवाही में विरोधाभास और कुछ नामों के एफआईआर में देर से आने को आधार बनाया।
हाईकोर्ट का विश्लेषण
मुख्य न्यायाधीश रामेश सिन्हा द्वारा लिखित विस्तृत फैसले में हाईकोर्ट ने पीडब्ल्यू-1 लच्छूराम (घायल चश्मदीद) और पीडब्ल्यू-11 पिचोबाई (मृतक की पत्नी) की गवाहियों के साथ-साथ चिकित्सकीय और फॉरेंसिक साक्ष्यों की भी गहराई से समीक्षा की।
कोर्ट ने कहा:
“घायल गवाह की गवाही को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि उसमें कुछ मामूली विरोधाभास हैं। यदि अन्य आपराधिक साक्ष्य उसकी पुष्टि करते हैं तो उस आधार पर दोषसिद्धि दी जा सकती है।”
कोर्ट ने Balu Sudam Khalde v. State of Maharashtra (2023) और C. Muniappan v. State of Tamil Nadu (2010) का हवाला देते हुए दोहराया कि घायल गवाह सामान्यतः सत्य बोलता है और झूठे आरोप लगाने की संभावना कम होती है।
पीठ ने यह भी माना कि रमेश्वर और संतोष का नाम भले ही एफआईआर में न हो, लेकिन उसी दिन दर्ज धारा 161 सीआरपीसी के बयान में उनके नाम हैं, जो झूठे फंसाने की संभावना को खारिज करता है।
कानूनी प्रश्न जिन पर विचार हुआ
1. क्या घायल चश्मदीद की गवाही में मामूली विरोधाभास अभियोजन के केस को कमजोर करते हैं?
कोर्ट का उत्तर था:
“जब तक कोई ठोस कारण न हो, घायल गवाह की गवाही को हल्के में नहीं लिया जा सकता।”
2. क्या मेडिकल और फॉरेंसिक साक्ष्यों से पुष्टि दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त है?
हाँ, कोर्ट ने माना कि पोस्टमार्टम और MLC रिपोर्ट, घायल गवाह की गवाही के साथ मिलकर दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त हैं।
3. क्या धारा 149 आईपीसी की प्रासंगिकता ऐसे मामलों में लागू होती है जहां अवैध जमावड़ा हो?
कोर्ट ने कहा:
“यदि अभियुक्त अवैध जमावड़े का हिस्सा है, तो धारा 149 के तहत दोषसिद्धि संभव है, भले ही उसने स्वयं घातक वार न किया हो।”
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दिया गया बरी करने का आदेश खारिज कर दिया। सातों अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302/149 और धारा 307/149 के तहत दोषी ठहराया गया।
सजा का विवरण:
- रघुनाथ की हत्या के लिए आजीवन कारावास
- घायल लच्छूराम की हत्या का प्रयास करने पर 5 वर्ष का कठोर कारावास
- ₹1200 का जुर्माना, भुगतान न करने पर अतिरिक्त साधारण कारावास
कोर्ट ने आदेश दिया कि अभियुक्त एक माह के भीतर ट्रायल कोर्ट में समर्पण करें, अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा जाएगा।
कानूनी प्रतिनिधित्व
- राज्य की ओर से: श्री हरिओम राय, पैनल वकील
- अभियुक्त संख्या 6 और 7 की ओर से: श्री एस. पी. साहू, अधिवक्ता