छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में अपहरण, फिरौती और हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए तीन युवकों की आजीवन कारावास की सजा को रद्द कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्त गुरु की खंडपीठ ने प्रक्रियात्मक खामियों और अनिवार्य प्रमाण पत्र के अभाव में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों को अस्वीकार्य मानते हुए यह फैसला सुनाया।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65-B के तहत अनिवार्य प्रमाण पत्र के बिना कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDR) और सीसीटीवी फुटेज जैसे इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना 6 फरवरी 2022 की है। बिलासपुर के तारबाहर निवासी 16 वर्षीय मोहम्मद रेहान स्नैक्स खरीदने के लिए घर से निकला था और वापस नहीं लौटा। उसके पिता आसिफ मोहम्मद ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई। आरोप था कि उसी रात पिता को बेटे के मोबाइल नंबर से फोन आया और 50 लाख रुपये की फिरौती मांगी गई।
पुलिस ने कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDR) के आधार पर आरोपियों को गिरफ्तार किया। पुलिस का दावा था कि आरोपी अभिषेक दान ने पूछताछ में खुलासा किया कि उसने अपने साथियों साहिल और रवि के साथ मिलकर लड़के का अपहरण किया और हत्या कर शव को मननपुर हाईवे के पास एक पुलिया के नीचे बोरे में छिपा दिया। 3 अगस्त 2024 को निचली अदालत ने तीनों को आईपीसी की धारा 363, 364A, 387, 302 और 201 के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता राजेश जैन, गौतम क्षेत्रपाल और संतोष भारत ने दलील दी कि दोषसिद्धि केवल अनुमानों और अस्वीकार्य साक्ष्यों पर आधारित है।
- आयु निर्धारण और ट्रायल में खामी: यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता रवि खांडेकर के खिलाफ ट्रायल अनुचित तरीके से चलाया गया। जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड द्वारा उसे वयस्क घोषित किए जाने के बाद, अभियोजन पक्ष द्वारा उद्धृत नौ गवाहों में से केवल दो का ही परीक्षण कराया गया, जिससे उसे निष्पक्ष सुनवाई का मौका नहीं मिला।
- इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता: बचाव पक्ष ने जोर देकर कहा कि पुलिस ने कॉल डिटेल और सीसीटीवी फुटेज पेश करते समय भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65-B के तहत अनिवार्य प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं किया, इसलिए ये साक्ष्य कानूनन मान्य नहीं हैं।
- अपहरण साबित नहीं: वकीलों ने तर्क दिया कि ‘व्यपहरण’ (Kidnapping) का अपराध तब बनता है जब नाबालिग को अभिभावक की सहमति के बिना ले जाया जाए (Taking), लेकिन इस मामले में लड़का अपनी मर्जी से घर से निकला था।
वहीं, राज्य की ओर से उप महाधिवक्ता शशांक ठाकुर ने सजा का समर्थन करते हुए कहा कि शव की बरामदगी और फिरौती के लिए इस्तेमाल मोबाइल की बरामदगी आरोपियों की संलिप्तता साबित करने के लिए पर्याप्त है।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
हाईकोर्ट ने मामले के तथ्यों और साक्ष्यों का बारीकी से विश्लेषण करते हुए अभियोजन के दावों को खारिज कर दिया:
1. अपहरण साबित करने में विफलता
कोर्ट ने कहा कि धारा 361 आईपीसी (धारा 363 के तहत दंडनीय) के लिए यह साबित करना जरूरी है कि आरोपी ने नाबालिग को ‘बहकाया’ (Enticed) या ‘ले गया’ (Took)। कोर्ट ने एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1965) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि लड़का खुद घर से निकला था, इसलिए केवल बाद में आरोपियों के साथ उसका होना ‘अपहरण’ नहीं माना जा सकता।
2. धारा 65-B प्रमाण पत्र की अनिवार्यता
हाईकोर्ट ने अर्जुन पंडितराव खोटकर बनाम कैलाश कुशनराव गोरंत्याल (2020) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा कि धारा 65-B(4) का प्रमाण पत्र इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए अनिवार्य शर्त है। जांच एजेंसी इसे पेश करने में विफल रही, इसलिए कॉल रिकॉर्ड और सीसीटीवी फुटेज को साक्ष्य के रूप में नहीं माना जा सकता।
3. फिरौती की मांग साबित नहीं
कोर्ट ने पाया कि यह साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है कि आरोपियों ने ही फिरौती का फोन किया था। अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में विफल रहा कि आरोपियों ने शिकायतकर्ता को धमकी दी थी।
4. जांच में गंभीर लापरवाही
पीठ ने जांच एजेंसी की कार्यशैली पर कड़ी टिप्पणी की। कोर्ट ने noted किया कि सीसीटीवी फुटेज घटना के 45 दिन बाद जब्त किए गए, जिससे इसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है। इसके अलावा, गवाहों को समन न करने को कोर्ट ने “न्यायिक कर्तव्य का त्याग” करार दिया।
निष्कर्ष
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने तीनों अपीलकर्ताओं – रवि खांडेकर, साहिल उर्फ शिबू खान और अभिषेक दान की अपीलों को स्वीकार करते हुए उनकी दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया। कोर्ट ने उन्हें तत्काल रिहा करने का आदेश दिया। साथ ही, भविष्य की जांच में कानूनी प्रक्रियाओं का पालन सुनिश्चित करने के लिए पुलिस महानिदेशक को फैसले की प्रति भेजने का निर्देश दिया।

