प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्य के माध्यम से, प्रत्यक्ष प्रमाण के बिना भी, षडयंत्र सिद्ध किया जा सकता है: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल की सदस्यता वाले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बस्तर में 2014 में हुए घातक माओवादी हमले में आरोपी चार व्यक्तियों की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि “षड्यंत्र खुलेआम नहीं रचे जाते; वे परिस्थितियों और आचरण से सिद्ध होते हैं।”

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 11 मार्च, 2014 को बस्तर जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर टाहकवाड़ा के पास हुए एक क्रूर हमले से संबंधित है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की 80वीं बटालियन की एक रोड ओपनिंग पार्टी (आरओपी) स्थानीय पुलिस कर्मियों के साथ एक सड़क निर्माण परियोजना को सुरक्षित करने के लिए तैनात की गई थी। जैसे ही आरओपी का पहला भाग उस स्थान पर पहुंचा, लगभग 150-200 सशस्त्र माओवादियों ने आग्नेयास्त्रों और तात्कालिक विस्फोटक उपकरणों (आईईडी) का उपयोग करके उन पर घात लगाकर हमला कर दिया। इस हमले में 15 सुरक्षाकर्मी (11 सीआरपीएफ और 4 राज्य पुलिस अधिकारी) मारे गए, जबकि तीन अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए। एक नागरिक राहगीर की भी मौत हो गई।

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21 मार्च, 2014 को गृह मंत्रालय के निर्देश के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने जांच अपने हाथ में ले ली। आरोपियों- कवासी जोगा उर्फ ​​पाडा, दयाराम बघेल उर्फ ​​रमेश अन्ना, मनीराम कोर्राम उर्फ ​​बोटी और महादेव नाग को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), शस्त्र अधिनियम, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम (ईएसए) और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की कई धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया, उन पर आरोप लगाए गए और उन्हें दोषी ठहराया गया।

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महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे

अपीलकर्ताओं को विशेष न्यायाधीश (एनआईए अधिनियम/अनुसूचित अपराध), बस्तर, जगदलपुर द्वारा 12 फरवरी, 2024 को निम्नलिखित कानूनी प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया गया:

आईपीसी धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 120बी (आपराधिक साजिश)

आर्म्स एक्ट धारा 25(1)(1-बी)(ए) और 27

विस्फोटक पदार्थ अधिनियम धारा 3 और 4

यूएपीए धारा 16 (आतंकवादी कृत्य), 18 (साजिश), 20 (आतंकवादी संगठन की सदस्यता), 23 (सहायता प्रदान करना), और 38(2) (आतंकवादी संगठन से जुड़ाव)

विचार किए गए प्रमुख कानूनी मुद्दे थे:

क्या केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य ही साजिश को साबित करने के लिए पर्याप्त थे।

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आतंकवादी मामलों में न्यायेतर स्वीकारोक्ति की स्वीकार्यता।

आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों से पुलिस कर्मियों में बदल चुके गवाहों की गवाही की विश्वसनीयता।

यूएपीए और ईएसए के तहत अभियोजन के लिए मंजूरी आदेशों की वैधता।

न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ

षड्यंत्र मामलों में परिस्थितिजन्य साक्ष्य: न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर भरोसा करते हुए कहा कि षड्यंत्र मामलों में प्रत्यक्ष साक्ष्य शायद ही कभी उपलब्ध होते हैं। पीठ ने कहा, “षड्यंत्र परिस्थितियों, आचरण और अभियुक्तों की भागीदारी के माध्यम से साबित होते हैं।”

साक्षी की विश्वसनीयता: न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि पूर्व माओवादी जो पुलिस कर्मी बन गए थे, वे अविश्वसनीय गवाह थे। “उनका पिछला जुड़ाव स्वचालित रूप से उनकी गवाही को बदनाम नहीं करता है, खासकर जब अन्य साक्ष्यों द्वारा पुष्टि की जाती है।”

आरोपी की पहचान: कई गवाहों ने आरोपी की पहचान माओवादी बैठकों, सशस्त्र सभाओं और घात में शामिल होने के रूप में की।

अभियोजन के लिए मंजूरी: न्यायालय ने बचाव पक्ष की चुनौती को खारिज करते हुए यूएपीए और ईएसए के तहत मंजूरी आदेशों की वैधता को बरकरार रखा।

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न्यायेतर स्वीकारोक्ति: न्यायालय ने माना कि न्यायेतर स्वीकारोक्ति के लिए पुष्टि की आवश्यकता होती है, लेकिन माना कि इस मामले में, “आरोपी की भूमिका की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्र साक्ष्य हैं।”

न्यायालय का निर्णय

डिवीजन बेंच ने अपील को खारिज कर दिया और आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखा। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य, साथ ही पुष्टि करने वाले गवाहों के बयान और फोरेंसिक निष्कर्ष, उचित संदेह से परे अपराध स्थापित करने के लिए पर्याप्त थे। दोषी व्यक्ति तब तक अपनी सजा काटते रहेंगे जब तक कि वे सर्वोच्च न्यायालय से राहत नहीं मांगते।

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