मध्यस्थता पंचाट में न्यायालय का हस्तक्षेप केवल मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 तक ही सीमित: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने मध्यस्थता पंचाट (arbitral awards) में न्यायिक हस्तक्षेप के सीमित दायरे पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने मैसर्स अंजनी स्टील्स लिमिटेड के खिलाफ छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा दायर एक अपील को खारिज कर दिया। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने रायपुर के वाणिज्यिक न्यायालय के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें एक जल आपूर्ति विवाद में स्टील कंपनी के पक्ष में दिए गए मध्यस्थता पंचाट की पुष्टि की गई थी। हाईकोर्ट ने दोहराया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा अत्यंत सीमित है और इसमें सबूतों का पुनर्मूल्यांकन या अनुबंध की नई व्याख्या शामिल नहीं हो सकती है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद छत्तीसगढ़ सरकार के जल संसाधन विभाग और मैसर्स अंजनी स्टील्स लिमिटेड के बीच 11 दिसंबर, 2009 को हुए एक जल आपूर्ति समझौते से उत्पन्न हुआ था। कंपनी ने राज्य में स्टील और पावर प्लांट स्थापित करने के लिए 2003 और 2007 में समझौता ज्ञापनों (MoUs) पर हस्ताक्षर किए थे और अपने संचालन के लिए पानी की मांग की थी।

कंपनी की प्रारंभिक पानी की आवश्यकता उसके मौजूदा स्पंज आयरन और 12 मेगावाट पावर प्लांट के लिए प्रति वर्ष 0.29 मिलियन क्यूबिक मीटर (MCM) थी। साथ ही, उसने एक प्रस्तावित 60 मेगावाट पावर प्लांट और एकीकृत स्टील प्लांट के लिए भविष्य में अतिरिक्त 1.52 MCM प्रति वर्ष की आवश्यकता का अनुमान लगाया था।

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12 नवंबर, 2009 को, राज्य सरकार ने केलो नदी से प्रति वर्ष कुल 1.81 MCM पानी आवंटित किया। आवंटन आदेश में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि यह आपूर्ति प्रस्तावित केलो बांध के निर्माण पर निर्भर करेगी। इसके बाद 11 दिसंबर, 2009 को एक समझौता किया गया।

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विवाद का मुख्य कारण यह था कि विभाग ने दिसंबर 2009 से ही कंपनी को पूरी आवंटित मात्रा, यानी 1.81 MCM प्रति वर्ष के लिए बिल भेजना शुरू कर दिया। हालांकि, केलो बांध का निर्माण 2012 तक नहीं हुआ था, और कंपनी का प्रस्तावित 60 मेगावाट का प्लांट भी स्थापित नहीं हुआ था। नतीजतन, मैसर्स अंजनी स्टील्स एक प्राकृतिक स्रोत, गेरवानी नाले से प्रति वर्ष केवल 0.29 MCM पानी ही ले रही थी।

वास्तविक खपत के आधार पर बिलों को ठीक करने के लिए कंपनी के बार-बार के अनुरोधों को विभाग ने अस्वीकार कर दिया, जिसके कारण समझौते के अनुसार मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू हुई।

मध्यस्थता पंचाट का निर्णय

एकल मध्यस्थ, माननीय श्री न्यायमूर्ति एल.सी. भादू (सेवानिवृत्त) ने सबूतों और दलीलों की जांच के बाद 9 सितंबर, 2018 को अपना निर्णय सुनाया। मध्यस्थ ने पाया कि राज्य सरकार उपयोग नहीं किए गए 1.52 MCM पानी के लिए 8,53,06,786 रुपये के अपने प्रति-दावे (counter-claim) की हकदार नहीं थी। पंचाट ने कंपनी को जुलाई 2012 से उसके द्वारा उपयोग किए गए 0.29 MCM पानी के लिए भुगतान करने का निर्देश दिया, और उसे 2009 और 2012 के बीच किए गए अतिरिक्त भुगतानों को समायोजित करने की अनुमति दी।

मध्यस्थ ने राज्य की उस शर्त को “मनमाना, अनुचित और अन्यायपूर्ण” माना, जिसमें कहा गया था कि आवंटन तभी कम किया जाएगा जब कंपनी अगले 20 वर्षों तक और पानी की मांग नहीं करने पर सहमत हो।

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इस फैसले से असंतुष्ट होकर, राज्य ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत इस पंचाट को वाणिज्यिक न्यायालय, रायपुर में चुनौती दी। वाणिज्यिक न्यायालय ने 18 अक्टूबर, 2019 को राज्य की याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद यह मामला हाईकोर्ट में अपील में आया।

हाईकोर्ट में दी गई दलीलें

राज्य की ओर से पेश महाधिवक्ता ने तर्क दिया कि मध्यस्थता पंचाट समझौते के विपरीत था, जो कुल 1.81 MCM प्रति वर्ष के लिए था। यह दलील दी गई कि कंपनी ने जून 2012 तक बिना किसी विरोध के पूरी राशि के बिलों का भुगतान किया था और समझौते के क्लॉज 2 के अनुसार कंपनी वास्तविक उपयोग की परवाह किए बिना आवंटित मात्रा का कम से कम 90% भुगतान करने के लिए बाध्य थी।

वहीं, मैसर्स अंजनी स्टील्स का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अभिषेक सिन्हा ने तर्क दिया कि एक मध्यस्थता पंचाट में न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा बहुत सीमित है। उन्होंने बताया कि समझौते के क्लॉज 22 में 13 नवंबर, 2009 के जल आवंटन आदेश को स्पष्ट रूप से शामिल किया गया था, जिसने 1.81 MCM की आपूर्ति को केलो बांध के निर्माण पर सशर्त बना दिया था। चूंकि बांध केवल 2012 में पूरा हुआ, इसलिए उससे पहले पूरी राशि के लिए बिल भेजना अनुचित था।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु द्वारा लिखे गए फैसले में हाईकोर्ट ने अनुबंध की शर्तों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया। न्यायालय ने पाया कि जल आवंटन आदेश समझौते का एक अभिन्न अंग था और उसकी भाषा स्पष्ट थी। फैसले में कहा गया, “उपरोक्त आदेश के अवलोकन से पता चलता है कि 1.81 MCM पानी की वार्षिक मात्रा केलो नदी पर केलो बांध के निर्माण के बाद ही आवंटित की जानी थी।”

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न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के ‘पंजाब स्टेट सिविल सप्लाइज कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम सनमान राइस मिल्स’ मामले का हवाला देते हुए न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत को पुष्ट किया और कहा, “मध्यस्थता मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप का दायरा लगभग प्रतिबंधित है, यदि पूरी तरह से वर्जित नहीं है, और यह हस्तक्षेप केवल अधिनियम की धारा 34 के तहत उल्लिखित सीमा तक ही सीमित है।”

पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि मध्यस्थ के निष्कर्ष “अनुबंध की शर्तों की एक उचित व्याख्या” पर आधारित थे और इसमें कोई स्पष्ट अवैधता या सार्वजनिक नीति का उल्लंघन नहीं था। कोर्ट ने कहा, “यह एक स्थापित कानून है कि किसी अनुबंध के खंडों की व्याख्या करना और तथ्यों व सबूतों का मूल्यांकन करना मध्यस्थ का विशेष अधिकार क्षेत्र है।”

मध्यस्थता पंचाट या वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश में कोई कमी न पाते हुए, हाईकोर्ट ने अपील को “आधारहीन” (sans substratum) बताकर खारिज कर दिया।

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