छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अपने भतीजे और भतीजी की हत्या के आरोपी दंपति को बरी करते हुए कहा कि केवल संदेह के आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती और अभियोजन पक्ष परिस्थितिजन्य साक्ष्य की पूरी श्रृंखला स्थापित करने में विफल रहा। न्यायमूर्ति संजय एस. अग्रवाल और न्यायमूर्ति संजय कुमार जायसवाल की खंडपीठ ने डोमेंद्र ओझा और उनकी पत्नी मालती बाई की दोषसिद्धि को पलट दिया, जिन्हें 2015 में कथित तौर पर दो बच्चों की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला घनश्याम ओझा के छह वर्षीय भुनेश्वरी और तीन वर्षीय मोहन की दुखद मौत से जुड़ा था। अभियोजन पक्ष के अनुसार, 11 मई, 2015 को दुर्ग जिले के घुघसीडीह गांव में उनके घर के अंदर बच्चे जले हुए पाए गए थे। उनके पिता द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर में शुरू में मालती बाई पर अपराध का संदेह था, क्योंकि वह कथित तौर पर बच्चों के बारे में शिकायत करती थी और उनके साथ दुर्व्यवहार करती थी।
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ट्रायल कोर्ट ने डोमेंद्र ओझा और मालती बाई को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषी ठहराया, मुख्य रूप से इस तथ्य पर भरोसा करते हुए कि वे घटना के दौरान घर पर मौजूद थे और बच्चों की मौत के बारे में स्पष्टीकरण देने में विफल रहे। उन्हें 7वें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, दुर्ग द्वारा आजीवन कारावास और 500-500 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।
कानूनी मुद्दे और हाईकोर्ट की टिप्पणियां
अपील में मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे मामले को सफलतापूर्वक साबित किया और क्या ट्रायल कोर्ट ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 को लागू करके सही किया, जो उन मामलों में सबूत का बोझ अभियुक्त पर डाल देता है जहां कोई तथ्य विशेष रूप से उनके ज्ञान में होता है।
अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीमती फौजिया मिर्जा ने तर्क दिया कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था और इसमें ठोस सबूतों का अभाव था। उन्होंने कथित साक्ष्यों, जैसे केरोसिन कंटेनर और माचिस की तीलियों की बरामदगी में विसंगतियों की ओर इशारा किया, जिनके बारे में दावा किया गया था कि उन्हें अपराध स्थल पर पाए जाने के एक दिन बाद आरोपियों से जब्त किया गया था। उन्होंने यह भी उजागर किया कि अभियोजन पक्ष स्पष्ट मकसद स्थापित करने में विफल रहा।
उप महाधिवक्ता श्री संजीव पांडे ने ट्रायल कोर्ट के फैसले का बचाव करते हुए कहा कि आरोपी बच्चों के साथ आखिरी व्यक्ति थे और उनकी मौत के लिए कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण देने में विफल रहे।
हाई कोर्ट का फैसला
हाई कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि संदेह, चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो, कानूनी सबूत की जगह नहीं ले सकता। इसने फैसला सुनाया कि:
अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में विफल रहा कि अपराध होने के समय आरोपी घटनास्थल पर मौजूद थे।
उनके खिलाफ सबूत परिस्थितिजन्य थे और अपराध से उन्हें जोड़ने वाली पूरी श्रृंखला नहीं बनाते थे।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 अभियोजन पक्ष को उचित संदेह से परे अपने मामले को साबित करने से मुक्त नहीं करती है।
ट्रायल कोर्ट ने सबूत का बोझ पूरी तरह से आरोपी पर डालने में गलती की।
नागेंद्र साह बनाम बिहार राज्य (2021) 10 एससीसी 725 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, बेंच ने दोहराया कि सबूत पेश करने का भार अभियोजन पक्ष पर है, न कि अभियुक्त पर। इसने फैसला सुनाया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में, स्पष्टीकरण न देना तब तक दोषसिद्धि नहीं माना जाता जब तक कि अभियोजन पक्ष पहले प्रथम दृष्टया मामला स्थापित न कर दे।
हाई कोर्ट ने अपील स्वीकार कर ली, दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और डोमेंद्र ओझा और मालती बाई की तत्काल रिहाई का आदेश दिया। इसने ट्रायल कोर्ट को आवश्यक कार्रवाई के लिए जेल अधिकारियों को फैसला भेजने का निर्देश दिया।