पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि रिश्वत की अदायगी के रूप में जारी किया गया चेक ‘परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881’ (Negotiable Instruments Act, 1881) के तहत कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण नहीं माना जा सकता। जस्टिस मंजरी नेहरू कौल ने सुरिंदर सिंह बनाम राम देव मामले में यह फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि अधिनियम केवल कानूनी रूप से वैध दायित्वों को ही कवर करता है, और ट्रायल कोर्ट द्वारा राम देव की बरी होने के फैसले के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
मामला सुरिंदर सिंह से जुड़ा है, जिन्होंने राम देव के खिलाफ एनआई अधिनियम की धारा 138 और 142 के तहत शिकायत दर्ज कराई थी, जब ₹1,00,000 का चेक बाउंस हो गया था। सिंह ने दावा किया था कि यह चेक पंजाब पुलिस में नौकरी दिलाने से संबंधित धोखाधड़ी के समझौते का हिस्सा था।
2016 में, सिंह ने राम देव के साले को ₹1.2 करोड़ का भुगतान किया था, यह विश्वास करते हुए कि यह राशि पुलिस की नौकरियां दिलाने में मदद करेगी। जब ऐसी कोई नौकरी नहीं मिली, तो सिंह ने धोखाधड़ी और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 420 और 120-बी के तहत एफआईआर दर्ज कराई। इसके बाद, राम देव ने एक समझौते का प्रस्ताव दिया और ₹1,00,000 का चेक जारी किया। हालांकि, जब सिंह ने इसे भुनाने का प्रयास किया, तो खाते के बंद होने के कारण चेक बाउंस हो गया।
ट्रायल कोर्ट ने पहले ही राम देव को बरी कर दिया था, यह निष्कर्ष निकालते हुए कि चेक एक अवैध रिश्वत के भुगतान के संबंध में जारी किया गया था, जो एनआई अधिनियम के तहत कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण के रूप में योग्य नहीं था। सिंह ने इस फैसले के खिलाफ अपील करते हुए तर्क दिया कि भले ही भुगतान अवैध था, लेकिन चेक जारी करके जिम्मेदारी को स्वीकार करने से इसे प्रवर्तनीय बनाया जाना चाहिए था।
शामिल कानूनी मुद्दे
मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या रिश्वत की अदायगी के लिए जारी किया गया चेक एनआई अधिनियम के तहत प्रवर्तनीय हो सकता है। अधिनियम की धारा 138 के अनुसार, किसी चेक के बाउंस होने पर आपराधिक जिम्मेदारी तभी लगाई जा सकती है, जब वह कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व को निपटाने के लिए जारी किया गया हो।
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि भले ही मूल लेन-देन अवैध था, लेकिन उत्तरदाता द्वारा चेक के माध्यम से ऋण को स्वीकार करने से एक कानूनी दायित्व बनता है। अपीलकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि देव ने कभी चेक जारी करने या उस पर हस्ताक्षर करने से इनकार नहीं किया, जो एनआई अधिनियम के तहत वैध ऋण की धारणा को जन्म देता है।
हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने सहमति नहीं दी और कहा कि रिश्वत के रूप में किया गया भुगतान, चाहे इसे स्वीकार भी किया जाए, एक वैध ऋण नहीं हो सकता। अपीलकर्ता की क्रॉस-एग्जामिनेशन के दौरान यह स्वीकारोक्ति, कि भुगतान एक रिश्वत के लिए किया गया था, ट्रायल कोर्ट के फैसले के लिए महत्वपूर्ण थी।
कोर्ट का निर्णय
जस्टिस मंजरी नेहरू कौल ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि केवल वैध दायित्वों से उत्पन्न ऋण ही एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत प्रवर्तनीय हो सकते हैं। अपने फैसले में उन्होंने कहा:
“यह स्थापित कानून है कि कोई भी ऋण या दायित्व जो एक अवैध, अनैतिक या कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं होने वाले अनुबंध या वादे से उत्पन्न होता है, एनआई अधिनियम की धारा 138 के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आता। रिश्वत के रूप में किया गया भुगतान, जो एक अवैध और अनैतिक लेन-देन है, कानूनी रूप से प्रवर्तनीय दायित्व का गठन नहीं करता।”
कोर्ट ने यह दोहराया कि एनआई अधिनियम का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि परक्राम्य लिखतें वास्तविक और वैध वित्तीय दायित्वों का प्रतिनिधित्व करें। अदालत ने यह भी कहा कि इसके दायरे को अवैध भुगतान के लिए विस्तारित करना अधिनियम की अखंडता और कानून के सिद्धांतों को कमजोर करेगा।
केस का विवरण
– मामले का नाम: सुरिंदर सिंह बनाम राम देव
– मामला संख्या: CRM-A-233-2021
– पीठ: जस्टिस मंजरी नेहरू कौल