सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(s) के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। शीर्ष अदालत ने व्यवस्था दी है कि निजी घर के अंदर कहे गए कथित जातिसूचक अपशब्द “सार्वजनिक दृष्टि” (Public View) के अनिवार्य कानूनी मानक को पूरा नहीं करते हैं।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने सोहनवीर @ सोहनवीर धामा व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2025 INSC 1397) के मामले में अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें समन आदेश को बरकरार रखा गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत से संबंधित है, जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय की सदस्य हैं और गांव में सफाईकर्मी (स्वीपर) के रूप में कार्यरत थीं। उनका आरोप था कि 23 जुलाई 2023 को जब वह सफाई कर रही थीं, तब अपीलकर्ता संख्या 1 ने अपने बेटे और नौकर के साथ मिलकर उनके साथ गाली-गलौज और मारपीट की। शिकायतकर्ता ने आगे आरोप लगाया कि जब वह भागकर अपने घर गई, तो अपीलकर्ताओं ने “पीछा करते हुए उनके घर में प्रवेश किया और जातिसूचक गालियां दीं,” उनके कपड़े फाड़ दिए और जान से मारने की धमकी दी।
धारा 156(3) सीआरपीसी (CrPC) के तहत दिए गए आवेदन के आधार पर, 2 दिसंबर 2023 को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना) और 504 (शांति भंग करने के इरादे से अपमान) तथा SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(s) के तहत मामला दर्ज किया गया था।
विशेष न्यायाधीश ने 12 सितंबर 2024 को अपीलकर्ताओं को समन जारी किया। इसके खिलाफ अपीलकर्ताओं ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने 8 जुलाई 2025 को उनकी याचिका खारिज कर दी थी। हाईकोर्ट का मानना था कि “घटना का एक हिस्सा शिकायतकर्ता के घर के बाहर हुआ, जो सार्वजनिक दृष्टि के भीतर एक सार्वजनिक स्थान है।”
पक्षों की दलीलें
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह मामला प्रतिवादी के बेटे के खिलाफ दर्ज एफआईआर (FIR) के जवाब में “काउंटर-ब्लास्ट” (बदले की कार्रवाई) के रूप में दर्ज कराया गया है। उनके अनुसार, प्रतिवादी के बेटे ने अपीलकर्ता संख्या 3 पर जानलेवा हमला किया था।
SC/ST एक्ट के आरोपों के संबंध में, अपीलकर्ताओं के वकील ने विशेष रूप से तर्क दिया कि धारा 3(1)(s) के तहत अपराध नहीं बनता है। उनका कहना था कि कथित जातिसूचक गाली-गलौज शिकायतकर्ता के घर के अंदर हुई थी। उन्होंने दलील दी कि इस प्रावधान का अनिवार्य तत्व—कि अपशब्द “सार्वजनिक दृष्टि” (Within Public View) में कहे जाने चाहिए—इस मामले में नदारद है।
अपीलकर्ताओं का तर्क था:
“आरोप स्वयं यह संकेत देते हैं कि कथित गालियां प्रतिवादी संख्या 2 (शिकायतकर्ता) के निवास के भीतर दी गईं, जो सार्वजनिक दृष्टि से दूर है।”
कोर्ट का विश्लेषण और अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(s) का परीक्षण किया, जो किसी भी व्यक्ति को दंडित करती है जो “सार्वजनिक दृष्टि वाले किसी भी स्थान पर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को जाति के नाम से अपमानित करता है।”
“सार्वजनिक दृष्टि” (Public View) की व्याख्या करते हुए, पीठ ने करुप्पुदयार बनाम राज्य (2025 INSC 132) और हितेश वर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य (2020) के फैसलों का हवाला दिया। कोर्ट ने दोहराया:
“इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि किसी स्थान को ‘सार्वजनिक दृष्टि के भीतर’ होने के लिए, वह स्थान खुला होना चाहिए जहां जनता के सदस्य आरोपी द्वारा पीड़ित को कहे गए शब्दों को देख या सुन सकें। यदि कथित अपराध चारदीवारी के भीतर होता है जहां जनता के सदस्य मौजूद नहीं हैं, तो यह नहीं कहा जा सकता कि यह घटना सार्वजनिक दृष्टि वाले स्थान पर हुई है।”
तथ्यों पर इस कानूनी स्थिति को लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया कि शिकायतकर्ता के आवेदन में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि गालियां “शिकायतकर्ता के परिसर के अंदर” दी गई थीं।
कोर्ट ने कहा:
“प्रथम दृष्टया, यह परिस्थिति उस वैधानिक आवश्यकता को पूरा नहीं करती है कि गालियां ‘सार्वजनिक दृष्टि वाले किसी स्थान’ पर दी गई थीं, जो SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(s) के तहत अपराध का एक अनिवार्य घटक है। शिकायतकर्ता के घर को सार्वजनिक दृष्टि के भीतर नहीं माना जा सकता।”
पीठ ने यह भी इंगित किया कि प्रतिवादी संख्या 2 के वकील यह दिखाने में विफल रहे कि शिकायत या धारा 200 सीआरपीसी के बयान में कोई विशिष्ट दावा था कि गालियां सार्वजनिक दृष्टि में दी गई थीं। कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने यह निष्कर्ष निकालने में गलती की कि घटना सार्वजनिक दृष्टि में हुई थी।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ताओं के खिलाफ SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(s) के तहत प्रथम दृष्टया (prima facie) कोई मामला नहीं बनता है। कोर्ट ने कहा कि हालांकि समन आदेशों को रद्द करने के लिए अपीलीय शक्तियों का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए, लेकिन इस मामले में जहां आवश्यक तत्व गायब थे, हाईकोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए था।
कोर्ट ने आदेश दिया:
“तदनुसार, अपीलकर्ताओं के खिलाफ SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(s) के तहत शुरू की गई कार्यवाही को रद्द किया जाता है। हालांकि, आईपीसी (IPC) के तहत शेष अपराधों से संबंधित मुकदमा कानून के अनुसार जारी रहेगा।”
अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया गया।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: सोहनवीर @ सोहनवीर धामा व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य
- साइटेशन: 2025 INSC 1397
- पीठ: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता

