कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक विस्तृत फैसले में एक पत्नी द्वारा अपने पति और उसके परिवार के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए, 323, 307 और 34 के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को खारिज कर दिया। अदालत ने फैसला सुनाया कि पत्नी द्वारा अपने वैवाहिक घर छोड़ने के तीन साल बाद दायर किया गया मामला, आरोपी को परेशान करने के लिए तैयार की गई कानूनी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग है। फैसले में इस सिद्धांत पर जोर दिया गया कि वैवाहिक विवादों में न्याय को अनुचित दबाव या उत्पीड़न के हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता द्वारा अपने पति और उसके परिवार के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए (क्रूरता), 323 (चोट पहुंचाना), 506 (आपराधिक धमकी) और 34 (सामान्य इरादा) के तहत सबंग पुलिस स्टेशन में एफआईआर (संख्या 121/2020) दर्ज कराने के साथ विवाद शुरू हुआ। इस एफआईआर के कारण पश्चिम मेदिनीपुर में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष मुकदमा चल रहा है।
लगभग तीन साल बाद, 13 अप्रैल, 2023 को, शिकायतकर्ता ने क्रूरता और उत्पीड़न के उन्हीं आरोपों के आधार पर एक दूसरी एफआईआर (संख्या 125/2023) दर्ज की, जिसमें धारा 307 (हत्या का प्रयास) के तहत मामूली अतिरिक्त आरोप शामिल थे। याचिकाकर्ताओं ने इस दूसरी एफआईआर को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि यह पहले वाली एफआईआर के समान थी और उन पर अनुचित बोझ डालती है, खासकर तब जब पहला मामला पहले से ही विचाराधीन था।
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता सबीर अहमद, भास्कर हुतैत, धीमान बनर्जी और एजाज अहमद ने किया, जबकि राज्य का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता बितासोक बनर्जी और अरबिंद मन्ना ने किया।
कानूनी मुद्दे
अदालत ने इस मामले में दो प्राथमिक कानूनी प्रश्नों को संबोधित किया:
1. एक ही आरोप पर कई एफआईआर की वैधता
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि समान आरोपों के आधार पर कई एफआईआर की अनुमति देना दोहरा जोखिम है और निष्पक्षता और न्यायिक दक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन है। उन्होंने तर्क दिया कि दूसरी एफआईआर निरर्थक थी, क्योंकि उसी आरोप के लिए पहले से ही मुकदमा चल रहा था।
2. कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग
अदालत ने जांच की कि क्या शिकायतकर्ता के अपने वैवाहिक घर से चले जाने के लगभग तीन साल बाद दूसरी एफआईआर दर्ज करना आरोपी को परेशान करने और कानूनी उपायों का दुरुपयोग करने के इरादे से किया गया था।
अदालत की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति शम्पा दत्त (पॉल) ने कपिल अग्रवाल और अन्य बनाम संजय शर्मा और अन्य में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मिसाल का हवाला दिया और इस बात पर जोर दिया कि कानूनी प्रणाली को न्यायिक प्रक्रियाओं के दुरुपयोग को रोकना चाहिए। अदालत ने कहा कि एक ही आरोप के लिए अलग-अलग कानूनी उपायों का पालन करना कानूनी रूप से स्वीकार्य है, लेकिन ऐसी कार्यवाही उत्पीड़न के औजार में नहीं बदलनी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय को उद्धृत करते हुए, न्यायमूर्ति दत्त ने टिप्पणी की:
“धारा 482 सीआरपीसी और संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है कि आपराधिक कार्यवाही उत्पीड़न के हथियार में न बदल जाए।”
न्यायालय ने टिप्पणी की:
– शिकायतकर्ता दूसरी एफआईआर दर्ज करने के औचित्य के लिए नए तथ्य या भौतिक साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा।
– नई आपराधिक कार्यवाही शुरू करने में लगभग तीन वर्षों की देरी से अभियुक्त को परेशान करने के दुर्भावनापूर्ण इरादे का संकेत मिलता है।
न्यायमूर्ति दत्त ने आगे कहा:
“जब न्यायालय को लगता है कि आपराधिक कार्यवाही कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है या अभियुक्त पर अनुचित दबाव डालने के लिए इस्तेमाल की जाती है, तो न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिए ऐसी कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है।”
न्यायालय का निर्णय
न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया और एफआईआर संख्या 125/2023 (जीआर केस संख्या 1371/2023) से उत्पन्न कार्यवाही को रद्द कर दिया। निर्णय निम्नलिखित आधारों पर आधारित था:
1. दूसरी एफआईआर में लगाए गए आरोप पहली एफआईआर के आरोपों से लगभग मिलते-जुलते थे, जिससे नई कार्यवाही अनावश्यक हो गई।
2. बिना किसी नए साक्ष्य या कारण के, काफी देरी के बाद दूसरी एफआईआर दर्ज करना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग था।
अदालत ने पहले दर्ज एफआईआर (सं. 121/2020) में कानून के अनुसार मुकदमा जारी रखने का निर्देश दिया।
प्रतिनिधित्व
– याचिकाकर्ताओं की ओर से: अधिवक्ता साबिर अहमद, भास्कर हुतैत, धीमान बनर्जी और एजाज अहमद।
– राज्य की ओर से: अधिवक्ता बितासोक बनर्जी और अरबिंद मन्ना।