कलकत्ता हाईकोर्ट की पोर्ट ब्लेयर स्थित सर्किट बेंच ने वैवाहिक विवाद से उत्पन्न मानहानि के एक मामले में महिला को ₹1,00,000 का हर्जाना अदा करने का आदेश दिया है। महिला ने अपने पति पर बिना किसी प्रमाण के दूसरी शादी की योजना का आरोप लगाते हुए अख़बार में दो बार नोटिस प्रकाशित कराया था। कोर्ट ने माना कि इस तरह का प्रकाशन मानहानि की श्रेणी में आता है। हालांकि, प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा दिए गए ₹2 लाख के हर्जाने को संशोधित करते हुए ₹1 लाख कर दिया गया।
मामला क्या है?
अपीलकर्ता श्रीमती ‘ए’ और प्रतिवादी श्री ‘आर’ का विवाह 2 मार्च 1994 को हुआ था। उनके यहां 24 जनवरी 1996 को एक पुत्र का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात दोनों के संबंध बिगड़ गए और पति, जो पोर्ट ब्लेयर नगर परिषद में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत थे, ने क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक की याचिका दायर की (वैवाहिक वाद संख्या 27/2005)। ट्रायल कोर्ट ने तलाक की डिक्री दी थी, लेकिन हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने 24 नवंबर 2008 को FA No. 003 of 2008 में उस आदेश को निरस्त कर विवाह को बहाल कर दिया।
इसके तुरंत बाद, पत्नी ने 3 और 5 दिसंबर 2008 को स्थानीय दैनिक ‘The Daily Telegram’ में दो नोटिस प्रकाशित कराए, जिसमें कहा गया कि उसके पति दूसरी शादी करने जा रहे हैं, जबकि पहला विवाह अब भी वैध है। इन नोटिसों में जनता को चेतावनी दी गई थी कि यह दूसरी शादी कानूनन अमान्य होगी।
इससे आहत होकर पति ने पत्नी और अख़बार के संपादक के विरुद्ध ₹50 लाख के हर्जाने की मांग करते हुए मानहानि का दीवानी मुकदमा दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन प्रथम अपीलीय न्यायालय ने उस फैसले को पलटते हुए ₹2 लाख हर्जाना देने का आदेश दिया।
मुख्य कानूनी प्रश्न
जब पत्नी ने द्वितीय अपील (SA No. 7 of 2024) दाखिल की, तो हाईकोर्ट ने निम्नलिखित दो प्रमुख कानूनी प्रश्न तय किए:
- क्या यह प्रकाशन कि अपीलकर्ता वैध पत्नी है और दूसरी शादी की चेतावनी मानहानि की श्रेणी में आता है?
- क्या प्रथम अपीलीय न्यायालय ने अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर हर्जाना निर्धारित किया?
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता (पत्नी) की ओर से:
वकील श्री के.एम.बी. जयपाल ने तर्क दिया कि:
- नोटिस केवल इस उद्देश्य से दिए गए थे कि जनता को बताया जा सके कि विवाह अब भी वैध है।
- यह किसी को बदनाम करने की मंशा से नहीं, बल्कि कानून का उल्लंघन रोकने हेतु जनहित में था।
- उन्होंने यथासंभव जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की, लेकिन न तो सूत्र का नाम पता चल पाया और न ही उस महिला का जिससे पति का नाम जोड़ा जा रहा था।
- बिना दुर्भावना के प्रकाशन होने के कारण हर्जाने को रद्द किया जाए या कम किया जाए।
प्रतिवादी (पति) की ओर से:
वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीमती अंजलि नाग और श्री अजय माझी ने प्रस्तुत किया:
- पत्नी कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकीं और न ही सूचना के स्रोत का खुलासा किया।
- तलाक हुए बिना दूसरी शादी का झूठा आरोप समाज में उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाला था।
- गवाहों ने भी यह पुष्टि की कि उक्त नोटिसों के कारण पति की सामाजिक प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ।
अदालत की टिप्पणी
न्यायमूर्ति सुप्रतीम भट्टाचार्य ने निर्णय देते हुए कहा:
- मानहानि के तीन आवश्यक तत्व — कथन का अपमानजनक होना, वादी से उसका संबंध होना, और उसका प्रकाशन — सभी इस मामले में सिद्ध होते हैं।
- “पत्नी के साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि न तो वह किसी सूचना देने वाले का नाम बता सकी, न ही उस लड़की का जिससे उसके पति का विवाह होने वाला था।”
- “यह एक सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से स्पष्ट रूप से किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाला कथन है।”
- दो बार सार्वजनिक समाचार पत्र में इस तरह का आरोप लगाना, बिना किसी प्रमाण या पुष्टि के, वादी की छवि को नुकसान पहुंचाता है।
- संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार है। बिना साक्ष्य सार्वजनिक रूप से आरोप लगाना इस अधिकार का उल्लंघन है।
- भिम सिंह बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य (AIR 1986 SC 494) मामले का हवाला देते हुए कहा कि क्षतिपूर्ति न केवल हुए नुकसान की भरपाई होती है, बल्कि यह ऐसे गैर-जिम्मेदाराना कृत्यों को रोकने हेतु एक चेतावनी भी होती है।
अंतिम निर्णय
कोर्ट ने यह मानते हुए कि अपीलकर्ता एक सरकारी कर्मचारी हैं और उनकी वित्तीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए, हर्जाने की राशि को ₹2 लाख से घटाकर ₹1 लाख कर दिया।
इसके साथ ही, कोर्ट ने अख़बार के संपादक श्री असीम पोद्दार को आरोपमुक्त करते हुए कहा कि चूंकि यह एक भुगतान किया गया कानूनी नोटिस था, इसलिए इसकी सच्चाई की जांच करना संपादक की जिम्मेदारी नहीं बनती।
- प्रथम अपीलीय न्यायालय का निर्णय आंशिक रूप से संशोधित।
- ₹1,00,000 की क्षतिपूर्ति अपीलकर्ता (पत्नी) को प्रतिवादी (पति) को तीन माह के भीतर अदा करनी होगी।
- समाचार पत्र के संपादक को जिम्मेदार नहीं माना गया।