बॉम्बे हाईकोर्ट: ‘सीमित हस्तक्षेप’ का हवाला देकर न्यायिक जांच से पीछे न हटें, मध्यस्थता विवाद पर पुनर्विचार का आदेश

7 मार्च 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में एक निचली अदालत के निर्णय को निरस्त कर दिया और राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (NAFED) बनाम रोज एंटरप्राइज़ेज़ (प्रा.) लिमिटेड (REPL) एवं अन्य के मामले में मध्यस्थता निर्णय को चुनौती देने के मामले पर पुनर्विचार का आदेश दिया। न्यायमूर्ति ए.एस. चंदूरकर और न्यायमूर्ति राजेश पाटिल की पीठ ने यह फैसला वाणिज्यिक मध्यस्थता अपील संख्या 15/2024 में सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 24 मार्च 2004 और 30 अप्रैल 2004 को हुए दो “टाई-अप एग्रीमेंट्स” से उत्पन्न हुआ, जो NAFED (नई दिल्ली स्थित एक सहकारी संस्था) और पुणे स्थित निजी कंपनी REPL के बीच हुए थे। इन समझौतों के अनुसार, NAFED को REPL द्वारा खरीदे गए स्टॉक के मूल्य का 80% वित्तपोषण करना था। विवाद उत्पन्न होने पर 17 मार्च 2008 को NAFED ने मध्यस्थता खंड लागू किया।

12 फरवरी 2019 को मध्यस्थ ने NAFED के दावे खारिज कर दिए और यह भी कहा कि REPL के निदेशकगण—श्री सुरेश जी. मोटवानी और श्री राजेन्द्र नरहर कुलकर्णी—के विरुद्ध कोई मध्यस्थता समझौता नहीं था, इसलिए उनके विरुद्ध दावा नहीं माना जा सकता। साथ ही, मध्यस्थ ने REPL की प्रतिदावा भी स्वीकार की और NAFED को ₹33,97,77,369 की राशि 12% वार्षिक ब्याज सहित चुकाने का आदेश दिया।

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NAFED ने इस निर्णय को संघर्ष समाधान और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत जिला न्यायालय, पुणे में चुनौती दी, जिसे 22 अप्रैल 2024 को खारिज कर दिया गया। इसके पश्चात NAFED ने हाईकोर्ट में धारा 37(1)(c) के तहत अपील की।

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पक्षकार और उनके वकील
अपीलकर्ता:
NAFED की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. वीरेन्द्र तुलज़ापुरकर ने पेशी की, जिन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता श्री वैभव जोगलेकर, श्री अंकित तिवारी, श्री सागर चौरसिया, एवं शशिपाल शंकर की टीम ने सहयोग किया।

प्रत्युत्तरदाता:
REPL की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री आशीष कामत के नेतृत्व में श्री रंजीव कार्वाल्हो, श्री ऋषभ मुरली, सुश्री पुनीता अरोड़ा, श्री पुनीत अरोड़ा एवं M/s Arora & Co. की टीम उपस्थित थी।
प्रत्युत्तरदाता 2 एवं 3 (श्री सुरेश मोटवानी और श्री राजेंद्र कुलकर्णी) की ओर से भी यही अधिवक्ता उपस्थित रहे।

महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे

  • टाई-अप एग्रीमेंट्स की प्रकृति: NAFED ने तर्क दिया कि ये वित्तीय/ऋण अनुबंध थे, जबकि REPL ने इसे संयुक्त उद्यम बताया।
  • प्रतिदावे की वैधता: NAFED ने REPL द्वारा लाभ के नुकसान के दावे में विसंगतियों और अपर्याप्त साक्ष्य का हवाला दिया।
  • ब्याज पर विवाद: NAFED ने मासिक ब्याज की गणना को चुनौती दी, जबकि REPL ने केवल वार्षिक ब्याज की मांग की थी।
  • जबरन कराए गए घोषणापत्र: NAFED ने आरोप खारिज किया कि REPL से कथित हलफनामे दबाव में लिए गए थे।
  • न्यायिक समीक्षा का दायरा: मुख्य मुद्दा यह था कि जिला न्यायाधीश ने NAFED की आपत्तियों को समुचित रूप से सुना या नहीं।
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कोर्ट का निर्णय और मुख्य टिप्पणियाँ
हाईकोर्ट ने जिला न्यायाधीश का आदेश रद्द करते हुए मामले को धारा 34 के अंतर्गत नए सिरे से विचार के लिए वापस भेज दिया। पीठ ने इस बात पर बल दिया कि निचली अदालत सिर्फ “सीमित हस्तक्षेप” का हवाला देकर आपत्तियों को दरकिनार नहीं कर सकती।

न्यायमूर्ति ए.एस. चंदूरकर ने लिखा:
“सिर्फ यह कह कर कि धारा 34(2) के अंतर्गत हस्तक्षेप का दायरा सीमित है और साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन संभव नहीं है, चुनौती को खारिज कर देना पर्याप्त नहीं है। न्यायालय को प्रत्येक आपत्ति पर विचार कर उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का ठोस आधार प्रस्तुत करना चाहिए।”

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कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सीमित न्यायिक हस्तक्षेप का यह अर्थ नहीं कि अदालतें पूरी तरह से जांच करने से बचें। विशेष रूप से, निचली अदालत ने समझौते की प्रकृति, प्रतिदावे में विसंगति, और जबरन लिए गए हलफनामों जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी।

अंत में, कोर्ट ने यह आदेश दिया कि सिविल मिक्सड एप्लिकेशन संख्या 1337/2019 पर पुनर्विचार तीन महीने के भीतर पूरा किया जाए और तब तक NAFED द्वारा जमा की गई राशि को एस्क्रो खाते में रखा जाए।

न्यायपालिका की यह टिप्पणी एक मिसाल के तौर पर उभरती है कि मध्यस्थता मामलों में न्यायिक जिम्मेदारी को गंभीरता से निभाना आवश्यक है।

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