बॉम्बे हाईकोर्ट ने अंतरिम भरण–पोषण ₹50 हज़ार से बढ़ाकर ₹3.5 लाख किया; कहा—पति ने “अस्वच्छ हाथों” से कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, “कंगाली” का दावा था “फार्सिकल”

बॉम्बे हाईकोर्ट ने अंतरिम भरण-पोषण से जुड़े एक महत्वपूर्ण आदेश में, एक पत्नी को मिलने वाली मासिक राशि ₹50,000 से सात गुना बढ़ाकर ₹3,50,000 कर दी है। जस्टिस बी. पी. कोलाबावाला और जस्टिस सोमशेखर सुंदरसन की खंडपीठ ने पाया कि पति ने अपनी वित्तीय स्थिति के बारे में “सकारात्मक रूप से गलत बयानी” (positive misstatements) की थी और वह “साफ हाथों से अदालत में नहीं आया” (“not come to Court with clean hands”)।

हाईकोर्ट ने पति की दलीलों को “हास्यास्पद” (farcical) करार देते हुए, उसे 12 महीने के अग्रिम भरण-पोषण के रूप में ₹42,00,000 की राशि चार सप्ताह के भीतर भुगतान करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने कहा कि पति ने अपनी संपत्ति की “एक बेईमान तस्वीर” पेश की थी और फैमिली कोर्ट द्वारा तय की गई पिछली राशि “बहुत मामूली” (paltry) थी।

मामले की पृष्ठभूमि

दोनों पक्षों का विवाह 16 नवंबर, 1997 को हुआ था और वे 2013 में अलग होने से पहले 16 साल तक साथ रहे। 2015 में पति ने तलाक के लिए अर्जी दी। 24 फरवरी, 2023 को पुणे की फैमिली कोर्ट ने पति को क्रूरता के आधार पर तलाक (“Impugned Judgement”) दे दिया और स्थायी गुजारा भत्ता ₹50,000 प्रति माह तय किया, जो अंतरिम भरण-पोषण के बराबर ही था।

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इस फैसले के खिलाफ दोनों पक्षों ने हाईकोर्ट में क्रॉस-अपील दायर की, जिसके बाद फैसले पर रोक लगा दी गई थी। इसी अपील के लंबित रहने के दौरान, पत्नी ने भरण-पोषण को ₹5 लाख प्रति माह तक बढ़ाने के लिए एक अंतरिम आवेदन दायर किया, जबकि पति ने इसे पूरी तरह से रद्द करने के लिए एक अलग आवेदन दायर किया।

पक्षों की दलीलें

पत्नी के तर्क: पत्नी ने व्यक्तिगत रूप से पेश होकर तर्क दिया कि पति ऐतिहासिक रूप से भरण-पोषण भुगतान में “क्रॉनिक डिफॉल्टर” (chronic defaulter) रहा है। उन्होंने कहा कि राजनेश बनाम नेहा मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के तहत पति द्वारा दायर किए गए वित्तीय हलफनामे “सरासर झूठे” (blatantly false) थे। पत्नी ने अपने और अपनी बेटी के खर्चों के अनुरूप भरण-पोषण में वृद्धि की मांग की, जिसकी परवरिश वह पूरी तरह से अकेले कर रही थीं।

पति के तर्क: पति ने अपने वकील के माध्यम से दलील दी कि उसे किसी भी भरण-पोषण दायित्व से मुक्त किया जाना चाहिए। उसने दावा किया कि वह “साधन संपन्न व्यक्ति नहीं” (not a man of means) है और रियल एस्टेट कारोबार में कई फर्मों में हिस्सेदारी होने के बावजूद, कोविड-19 महामारी के बाद उसकी आय “समाप्त” हो गई है।

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पति ने वित्तीय वर्ष 2022-23 के अपने आयकर रिटर्न (ITR) का हवाला दिया, जिसमें उसकी आय “मुश्किल से 6 लाख रुपये” से अधिक दिखाई गई थी। उसने यह भी तर्क दिया कि पत्नी होम ट्यूटर और प्लांट नर्सरी व्यवसाय से पर्याप्त कमाई कर रही है। पति ने यह भी दावा किया कि वह पहले ही ₹21.65 लाख का भुगतान कर चुका है, जो “पर्याप्त से अधिक” था, और उसने पत्नी के चाचा को दिए गए ₹50 लाख के ऋण के एवज में भरण-पोषण को “सेट-ऑफ” (set-off) करने की भी मांग की।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में, जो जस्टिस सोमशेखर सुंदरसन द्वारा लिखा गया, रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री के आधार पर प्रथम दृष्टया टिप्पणियाँ कीं।

पारिवारिक व्यवसायों में आय का आकलन: कोर्ट ने पाया कि पति का परिवार “बेहद संपन्न” (extremely well endowed) है और एक “संयुक्त पारिवारिक व्यवसाय” (composite family business) चलाता है, जिसमें पति एक “अभिन्न सदस्य” है।

कोर्ट ने माना कि ऐसे मामलों में, केवल व्यक्तिगत टैक्स रिटर्न पर संकीर्ण रूप से ध्यान केंद्रित करना “अनुचित, भ्रामक और अन्यायपूर्ण” (inappropriate, misleading, and unjust) है। कोर्ट ने कहा: “परिवार के घटकों के बीच आय, लाभप्रदता और निवल मूल्य का आवंटन एक ऐसा उपाय है जिसे परिवार पूरी तरह से व्यवस्थित, प्रबंधित और मनगढ़ंत” (arrange, manage and contrive) कर सकते हैं। कोर्ट ने कहा कि अदालतों को वास्तविक (de facto) जीवनशैली को देखना चाहिए, क्योंकि पति के वित्तीय हित परिवार के व्यापक हितों के साथ “जटिल रूप से और अविभाज्य रूप से जुड़े हुए” (intricately and inextricably interwoven) हैं।

पति की विश्वसनीयता और “Unclean Hands”: कोर्ट ने पति के ITR पर निर्भरता में “ज्यादा विश्वसनीयता नहीं” पाई। कोर्ट ने उसकी “कंगाल” (penury) जीवन जीने की दलीलों को उसकी विश्वसनीयता को कम करने वाला बताया और कहा कि उसका केवल ₹50,000 प्रति माह कमाने का दावा “प्रथम दृष्टया, हास्यास्पद” (On the facet of it, the import is farcical) है।

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कोर्ट ने यह भी नोट किया कि पति द्वारा पत्नी के चाचा को दिए गए ऋण के बदले रखरखाव को “सेट-ऑफ” करने का दावा “उसके हकदारी के भाव और लेन-देन के दृष्टिकोण” (sense of entitlement and transactional approach) को दर्शाता है।

कोर्ट ने पति के “शपथ पर दिए गए बयानों” (affirmations sworn on oath) और उसके समूह की वेबसाइट पर उसके “दुनिया के सामने खुद के विवरण” (self-description to the world at large) के बीच एक स्पष्ट विरोधाभास पाया, जहाँ उसे परिवार के मुखिया का “पथप्रदर्शक” (torchbearer) बताया गया है। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला: “इसमें कोई संदेह नहीं है कि… [पति] अदालत में साफ हाथों से नहीं आया।”

वित्तीय दावों में विरोधाभास: कोर्ट ने पति के दावों में कई विरोधाभासों को उजागर किया:

  1. बेटे की शिक्षा: पति ने दावा किया कि उसे अपने बेटे की विदेश में शिक्षा के लिए अपने भाई पर निर्भर रहना पड़ा और शिक्षा ऋण लेना पड़ा। हालांकि, कोर्ट ने नोट किया कि बैंक रिकॉर्ड से पता चलता है कि “सितंबर 2018 और जुलाई 2023 के बीच [पति] से उसके भाई को ₹10 करोड़ से अधिक की राशि भेजी गई” (outflows) थी।
  2. शिक्षा ऋण EMI: पति ने शिक्षा ऋण के लिए ₹1,06,235 की EMI का दावा किया, जिसे कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह “उसके आयकर रिटर्न पर उसकी निर्भरता को स्पष्ट रूप से कमजोर करता है कि वह केवल ₹50,000 प्रति माह कमाता है।”
  3. जीवनशैली: कोर्ट ने मई 2024 में एक जन्मदिन की पार्टी की तस्वीरों का उल्लेख किया जिसमें पति और उसके बेटे ने ‘केंजो’ (Kenzo) टी-शर्ट पहनी हुई थीं, “जिनमें से प्रत्येक की कीमत ₹15,000 से अधिक हो सकती है।” कोर्ट ने स्पष्ट किया: “जो बात हमें स्वीकार्य नहीं है… वह है ‘साधनों की कमी’ के बारे में शपथ पर समकालीन रूप से झूठ बोलने का कार्य…”
  4. संपत्ति हस्तांतरण: कोर्ट ने पाया कि “अदालतों में अपनी संपत्ति के चित्रण को दबाने के इरादे से” पति द्वारा अपने भाई को स्वामित्व हित हस्तांतरित करने का एक “मजबूत प्रथम दृष्टया मामला” (strong prima facie case) है।

पत्नी के खर्चे और बेटी की परवरिश: कोर्ट ने पति की उन दलीलों को खारिज कर दिया कि पत्नी द्वारा अपने और अपनी बेटी के लिए सूचीबद्ध खर्चे (जिसमें योग, वायलिन और बेकिंग क्लास शामिल हैं) “अत्यधिक” (exorbitant) थे।

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फैसले में पति के इस तर्क को “पितृसत्तात्मक सोच” (patriarchal tenor) और “अपनी ही बेटी के कल्याण के प्रति एक नीच और प्रतिशोधी दृष्टिकोण” (mean and vindictive approach) दर्शाने वाला बताया गया।

फैमिली कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी: हाईकोर्ट ने माना कि फैमिली कोर्ट द्वारा दिया गया ₹50,000 का भरण-पोषण “बिल्कुल भी सुविचारित नहीं” (not at all a well-informed one) और “सिर्फ मामूली” (simply paltry) था। कोर्ट ने पाया कि पति द्वारा “एक बेईमान तस्वीर पेश करने” के कारण फैमिली कोर्ट “वित्तीय हितों के वास्तविक दायरे और पैमाने” पर ध्यान देने से “पूरी तरह से चूक” (completely missed the attention) गई।

निर्णय

हाईकोर्ट ने पत्नी के अंतरिम आवेदन को स्वीकार कर लिया और पति के आवेदन का निपटारा कर दिया।

कोर्ट ने अपने प्रथम दृष्टया निष्कर्षों को संक्षेप में प्रस्तुत किया:

  1. पति “साफ हाथों से अदालत में नहीं आया,” उसने “भौतिक तथ्यों को छिपाया” (material suppression) और “सकारात्मक रूप से गलत बयानी” (positive misstatements) की।
  2. पत्नी ने “एक मजबूत प्रथम दृष्टया मामला” (strong prima facie case) बनाया कि उसे दिया गया भरण-पोषण “बहुत कम” (minuscule) था।
  3. 16 साल की शादी की अवधि एक “महत्वपूर्ण कारक” थी, जिस पर फैमिली कोर्ट ने विचार नहीं किया।

कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश पारित किए:

  • पत्नी को ₹3,50,000 प्रति माह का अंतरिम भरण-पोषण दिया जाता है।
  • पति को 1 नवंबर, 2025 से शुरू होने वाले 12 महीनों के रखरखाव के लिए ₹42,00,000 की राशि, फैसले के अपलोड होने के चार सप्ताह के भीतर पत्नी के बैंक खाते में जमा करने का निर्देश दिया जाता है।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये सभी निष्कर्ष प्रथम दृष्टया हैं और क्रॉस-अपील के अंतिम निपटारे के समय समायोजन के अधीन होंगे।

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