“जनविश्वास का विश्वासघात”: ओवरलोडेड ट्रक सिंडिकेट मामले में एआरटीओ की अग्रिम जमानत याचिका खारिज, हाईकोर्ट ने की सख्त टिप्पणी

इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) ने लखनऊ में तैनात सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी (एआरटीओ) राजीव कुमार बंसल की अग्रिम जमानत याचिका को खारिज कर दिया है। बंसल पर ओवरलोडेड ट्रकों के अवैध परिवहन को सुविधाजनक बनाने वाले एक सिंडिकेट में शामिल होने का आरोप है। न्यायमूर्ति करुणेश सिंह पवार की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि लोक सेवकों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार समाज की प्रगति की इच्छाशक्ति को नष्ट कर देता है और आरोपों की गंभीरता को देखते हुए आरोपी को अग्रिम जमानत देने का कोई औचित्य नहीं है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला थाना मड़ियांव, लखनऊ में दर्ज अपराध संख्या 660 वर्ष 2025 से संबंधित है। इसमें भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 59, 61(2), 316(5), 318, 303(2), और 317(2) तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और 12 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई है।

अभियोजन पक्ष के अनुसार, राज्य को राजस्व की भारी हानि पहुँचाते हुए बिना वैध परमिट के बालू और गिट्टी ले जाने वाले ओवरलोडेड ट्रकों को पास कराने के लिए एक संगठित रैकेट चलाया जा रहा था। 11 नवंबर, 2025 को स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने अभिनव पांडेय नामक व्यक्ति को गिरफ्तार किया। पूछताछ में उसने कथित तौर पर कबूल किया कि वह आरटीओ/पीटीओ अधिकारियों की मिलीभगत से वाहनों को पास कराता था।

एफआईआर में आरोप है कि ट्रक मालिकों से रिश्वत वसूल कर परिवहन अधिकारियों, जिनमें आवेदक भी शामिल है, को दी जाती थी ताकि वाहनों की बिना जांच आवाजाही सुनिश्चित हो सके। सह-आरोपी के पास से वाहनों और भुगतान के विवरण वाली एक नोटबुक और मोबाइल चैट भी बरामद हुई है, जो अधिकारियों की संलिप्तता की ओर इशारा करती है।

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पक्षों की दलीलें

आवेदक की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पूर्णेंदु चक्रवर्ती और अधिवक्ता सुश्री स्निग्धा सिंह ने तर्क दिया कि एफआईआर बिना किसी ठोस आधार के “लापरवाही और यांत्रिक तरीके” से दर्ज की गई है। उन्होंने कहा कि बंसल की तैनाती उस स्थान पर केवल चार महीने पहले हुई थी और सह-आरोपी की नोटबुक में मिली प्रविष्टियों से उनका कोई संबंध नहीं है।

बचाव पक्ष ने विशेष रूप से बीएनएस की धारा 316(5) (जो आजीवन कारावास से दंडनीय है) लगाए जाने पर कड़ी आपत्ति जताई। उनका कहना था कि अन्य जिलों में समान आरोपों वाली एफआईआर में केवल सात साल तक की सजा वाली धाराएं लगाई गई हैं, जबकि आवेदक के खिलाफ बिना किसी ठोस सामग्री के चुनिंदा रूप से यह गंभीर धारा लगाई गई है। यह भी तर्क दिया गया कि आवेदक एक सरकारी अधिकारी हैं जिनका सेवा रिकॉर्ड बेदाग रहा है और वे मेडिकल लीव पर हैं।

इसके विपरीत, ए.जी.ए. श्री जे.एस. तोमर और एसीपी, अलीगंज ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि आवेदक एक संगठित गिरोह का हिस्सा हैं। उन्होंने स्वतंत्र गवाह आशुतोष दुबे के बयान और कॉल डिटेल रिकॉर्ड्स (सीडीआर) का हवाला दिया। अभियोजन ने खुलासा किया कि अपनी तैनाती के दौरान, जून से नवंबर 2025 के बीच, आवेदक की सह-आरोपी मनोज भारद्वाज के साथ 211 बार और अपने अधीनस्थ अनुज कुमार के साथ 292 बार फोन पर बातचीत हुई थी।

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हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

न्यायमूर्ति करुणेश सिंह पवार ने धारा 316(5) बीएनएस की प्रयोज्यता पर बचाव पक्ष की दलील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा:

“यह तर्क पूरी तरह से गलत है, क्योंकि आवेदक एक लोक सेवक है जिसे एक सार्वजनिक पद सौंपा गया है। आरोप है कि आवेदक ने कथित अपराध में लिप्त होकर अपने पद के प्रति भरोसे के साथ विश्वासघात किया है। यह प्रावधान संपत्ति के संबंध में विश्वासघात से संबंधित है और सार्वजनिक पद पर बड़ी जिम्मेदारियां संभालने वालों के लिए इसमें कठोर दंड का प्रावधान है।”

हाईकोर्ट ने नोट किया कि जांच में प्रथम दृष्टया यह सामने आया है कि ओवरलोडेड ट्रकों को “जानबूझकर कम वजन दिखाकर” पास किया जा रहा था, जिससे राज्य के राजस्व को नुकसान हुआ। कोर्ट ने इस बात पर भी गंभीर चिंता जताई कि जांच अधिकारी को परिवहन विभाग से ही आवेदक का आवासीय पता नहीं मिल सका।

“यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि सिंडिकेट/नेटवर्क इतना मजबूत है कि जांच अधिकारी द्वारा मांगी गई वांछित जानकारी भी परिवहन विभाग द्वारा उपलब्ध नहीं कराई जा रही है,” कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि आवेदक जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के दविंदर कुमार बंसल बनाम पंजाब राज्य (2025) के फैसले का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने जोर देकर कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत किसी आरोपी पर मुकदमा चलाने के लिए “रिश्वत का वास्तविक लेन-देन होना अनिवार्य शर्त नहीं है।”

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निर्णय

सिंडिकेट के संचालन के “व्यापक पैमाने” और जांच अधिकारी द्वारा जुटाए गए “सबूतों की भरमार” को देखते हुए, कोर्ट ने माना कि यह झूठे फंसाने का मामला नहीं है।

“सिंडिकेट/नेटवर्क जिस पैमाने पर काम कर रहा है… और जांच अधिकारी द्वारा एकत्र किए गए सबूतों की अधिकता जो आवेदक की संलिप्तता का संकेत देती है, इसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि यह झूठे फंसाने का मामला है। अग्रिम जमानत देने का कोई आधार नहीं बनता,” न्यायमूर्ति पवार ने फैसला सुनाया।

याचिका खारिज करते हुए, कोर्ट ने आदेश की एक प्रति जिलाधिकारी, लखनऊ को भेजने का निर्देश दिया, ताकि एआरटीओ (प्रशासन) के आचरण (आवेदक का पता उपलब्ध न कराने के संबंध में) का संज्ञान लिया जा सके।

केस डीटेल्स:

  • केस टाइटल: राजीव कुमार बंसल @ राजू बंसल एआरटीओ लखनऊ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
  • केस नंबर: क्रिमिनल मिसलेनियस एंटीसिपेटरी बेल एप्लीकेशन यू/एस 482 बीएनएसएस नंबर 1956 ऑफ 2025
  • कोरम: न्यायमूर्ति करुणेश सिंह पवार
  • आवेदक के वकील: श्री पूर्णेंदु चक्रवर्ती (वरिष्ठ अधिवक्ता), सुश्री स्निग्धा सिंह, श्री नदीम मुर्तजा
  • प्रतिवादी के वकील: श्री जे.एस. तोमर (ए.जी.ए.), जी.ए.

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