इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी में संचालित बाल गृहों की स्थिति पर चिंता जाहिर की है। कोर्ट ने कहा है कि यूपी के बाल गृहों में रह रहे बच्चों को न केवल पौष्टिक आहार नहीं मिल रहा है बल्कि उन्हें सूरज की रोशनी, ताजी हवा की भी जरूरत है।
कोर्ट ने कहा कि बाल गृहों की स्थिति जेलों से भी बदतर है और यह स्थिति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों का हनन है। कोर्ट ने बाल गृहों की कमियों को तुरंत दूर करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है।
कोर्ट ने कहा है कि मामले की अगली सुनवाई पर महिला एवं बाल विकास विभाग यूपी के प्रमुख सचिव बाल गृहों का अवलोकन कर बच्चों की संख्या, बाल गृहों की संख्या बताएं और उसके स्थिति में सुधार के लिए उठाए गए कदमों की जानकारी व्यक्तिगत हलफनामा पर प्रस्तुत करें।
यह आदेश मुख्य न्यायमूर्ति प्रीतिंकर दिवाकर और न्यायमूर्ति अजय भनोट की खंडपीठ ने स्वत संज्ञान लेते हुए जनहित याचिका पर दिया है। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के बाल गृहों की स्थिति में सुधार के लिए कुल नौ बिंदुओं पर सुझाव दिए हैं। और कहा है कि बालगृहों के बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए यूपी सरकार उसके सुझावों पर तुरंत करवाई करे।
कोर्ट ने अपने आदेश में यूपी के बाल गृहों का निरीक्षण करने वाले न्यायमूर्ति अजय भनोट का नाम भी दर्ज किया है। कोर्ट ने कहा कि न्यायमूर्ति द्वारा बाल गृहों के निरीक्षण में कई कमियों का पता चला जो भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन है। ऐसे बच्चे समाज के सबसे कमजोर वर्गों से आते हैं। लिहाजा, सरकार को बाल गृहों में व्याप्त कमियों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। कोर्ट ने कहा कि बाल गृहों की स्थिति ऐसी है कि वहां सूरज की रोशनी तक नहीं पहुंच रही है। ताजी हवा नहीं मिल रही है। खेल के मैदान या खुली जगह नहीं है। इस तरह का रहन सहन बच्चों के सर्वांगीण विकास में बाधक है। कोर्ट ने कहा कि जैसा देखने को मिला कि बाल गृहों की स्थिति जेल से भी बदतर है। कोर्ट राज्य की इस उदासीनता को बर्दाश्त नहीं कर सकती।
कोर्ट ने कहा कि किशोर न्याय और पाक्सो समिति द्वारा विभिन्न निर्देश जारी किए गए हैं। जिसमें, राज्य सरकार से ऐसे बाल गृहों को स्थानांतरित करने के लिए तत्काल उपाय करने को कहा गया है, जहां बच्चों की संख्या अधिक है और पर्याप्त सुविधाओं की कमी है।
हालांकि, राज्य सरकार ने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लिहाजा, कोर्ट यूपी सरकार को खेल और बाहरी गतिविधियों की पर्याप्त सुविधाओं के साथ इन घरों को अधिक सुविधा सम्पन्न स्थान पर स्थानांतरित करने का निर्देश देती है। कोर्ट ने कहा कि यह उपाय अंतरिम होगा। जब तक की ऐसे घरों के लिए एक मानक पैरामीटर तैयार नहीं कर लिए जाते हैं। कोर्ट ने बाल गृहों में तैनात कर्मचारी या पर्यवेक्षकों की कुशलता पर सवाल खड़े किए हैं। कहा कि यह पर्यवेक्षक या कर्मचारी पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं है। ऐसे पर्यवेक्षक या कर्मचारी से बच्चों के उनके व्यक्तित्व का पूरा विकास नहीं हो पा रहा है।
बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में बाल गृहों का वातावरण फायदे की बजाय ज्यादा नुकसानदायक है। कोर्ट ने कहा कि बच्चों के खाद्य पदार्थ सहित जीवन की अन्य आवश्यकताओं के लिए कई वर्षों से बजट आवंटन में संशोधन नहीं किया गया है। इसका भी असर बच्चों के विकास पर प्रतिकूल पड़ रहा है।
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कोर्ट ने शैक्षिक सुविधाओं के विकास पर बल दिया है। कहां है कि बच्चों के प्रदर्शन पर सतत निगरानी रखने की जरूरत है, जिससे कि उनकी कमियों को पहचान कर उन्हें दूर किया जा सके। कोर्ट ने बच्चों में भावनात्मक विकास और शारीरिक गतिविधियों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता बताई है। कहा है कि ऐसे बच्चे परिवारों से दूर रहते हैं। लिहाजा, प्रोफेशनल संस्थाओं के परामर्श से परिवर्तनकारी वातावरण और गतिविधि प्रणाली विकसित करने की जरूरत है। कोर्ट ने औपचारिक शिक्षा प्रणाली को विकसित करने की जरूरत बताई है और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर भी जोर दिया है। जिससे कि बाजार के नियोक्ताओं से उन्हें जोड़ा जा सके। इसके साथ ही नियमित शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए कहा है।
कोर्ट ने कहा कि बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए एक वैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है और संवैधानिक न्यायालय द्वारा इसे मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। यूपी सरकार की जिम्मेदारी है कि बाल गृहों में शिक्षा के अधिकार का पालन कराया जाय। कोर्ट ने यूपी सरकार को बाल गृह में रह रहे बच्चों को आसपास के प्रतिष्ठित स्कूलों में दाखिला दिलवाने का सुझाव दिया है। साथ यह भी कहा है कि बच्चों की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उनके परिवारों की आय प्रमाण पत्र की आवश्यकता खत्म करने पर भी राज्य सरकार विचार करे।