इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के तहत दायर एक अपील को 93 दिनों की देरी के कारण खारिज कर दिया है। न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने कहा कि अपील में देरी को स्वीकार करने के लिए कोई “पर्याप्त कारण” प्रस्तुत नहीं किया गया। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिए कि जब तक किसी न्यायिक अधिकारी या मध्यस्थ के विरुद्ध कोई विशेष आरोप न हों, तब तक उन्हें अपील में पक्षकार के रूप में नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
पृष्ठभूमि
यह अपील उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य प्रणाली विकास परियोजना (UPHSDP) और एम/एस मारुति कंस्ट्रक्शन के बीच सुल्तानपुर ज़िले में एक निर्माण अनुबंध को लेकर हुए विवाद से उत्पन्न हुई थी। एकल मध्यस्थ द्वारा 31 जनवरी 2021 को ठेकेदार के पक्ष में निर्णय पारित किया गया था।
UPHSDP द्वारा इस निर्णय के विरुद्ध मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत आपत्ति दर्ज की गई थी, जिसे 7 सितंबर 2024 को लखनऊ की वाणिज्यिक अदालत ने सीमावधि के आधार पर खारिज कर दिया।

इसके पश्चात, 22 जनवरी 2025 को धारा 37 के तहत अपील दाखिल की गई थी, जो त्रुटियों से युक्त थी, और पुनः 7 फरवरी 2025 को दायर की गई। इस प्रक्रिया में कुल 93 दिनों की देरी हुई, जो वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के तहत निर्धारित 60 दिनों की सीमा से अधिक थी।
न्यायालयों और मध्यस्थों को पक्षकार बनाने पर कोर्ट की टिप्पणी
खंडपीठ ने बिना आवश्यकता न्यायालयों और मध्यस्थों को पक्षकार बनाने की प्रवृत्ति पर कड़ा ऐतराज़ जताया। कोर्ट ने सावित्री देवी बनाम ज़िला जज, गोरखपुर (AIR 1999 SC 976) और जोगेंद्रसिंहजी विकयसिंहजी बनाम गुजरात राज्य (2015) 9 SCC 1 का हवाला देते हुए कहा:
“अब समय आ गया है कि दीवानी मामलों का निर्णय देने वाले न्यायिक अधिकारियों को याचिकाओं में पक्षकार बनाने की परंपरा समाप्त होनी चाहिए।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“धारा 34 या 37 के अंतर्गत दायर कार्यवाहियों में, जब तक किसी मध्यस्थ या मध्यस्थीय न्यायाधिकरण के सदस्य के विरुद्ध कोई विशिष्ट व्यक्तिगत आरोप न हों, उन्हें पक्षकार बनाना अनावश्यक है।”
इस आधार पर, कोर्ट ने “प्रेसाइडिंग ऑफिसर, वाणिज्यिक न्यायालय संख्या 1, लखनऊ” और “एकमात्र मध्यस्थ श्री पी.एन. गुप्ता” को प्रतिवादी सूची से हटाने का आदेश दिया।
सीमावधि पर कानूनी विश्लेषण
खंडपीठ ने धारा 37 के तहत अपीलों के लिए सीमावधि के कानूनी ढांचे को स्पष्ट किया। हालांकि मध्यस्थता अधिनियम स्वयं कोई विशिष्ट अवधि निर्धारित नहीं करता, लेकिन वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 13(1A) के अंतर्गत 60 दिनों की सीमा निर्धारित है।
कोर्ट ने बोर्से ब्रदर्स इंजीनियर्स एंड कॉन्ट्रैक्टर्स प्रा. लि. (2021 SCC OnLine SC 233) का हवाला देते हुए कहा कि धारा 5 (सीमावधि अधिनियम) के अंतर्गत देरी की माफी संभव है, लेकिन इसे बहुत सीमित रूप में लागू किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने दोहराया कि:
“इस अवधि से अधिक की कोई भी देरी अपवाद के रूप में ही स्वीकार की जा सकती है, न कि सामान्य नियम के रूप में — और वह भी तभी, जब याचिकाकर्ता की नीयत ईमानदार हो और उसमें लापरवाही न हो।”
देरी माफी याचिका पर निष्कर्ष
कोर्ट ने पाया कि अपील में देरी मुख्य रूप से सरकारी तंत्र की प्रशासनिक शिथिलता का परिणाम थी — जैसे कि कानूनी राय लेने और स्वीकृतियाँ प्राप्त करने में विलंब। कोर्ट ने टिप्पणी की:
“यह कोर्ट पाता है कि जो स्पष्टीकरण दिया गया है, वह मूलतः प्रशासनिक ढिलाई का ही उदाहरण है, जो ‘पर्याप्त कारण’ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।”
खंडपीठ ने यह भी रेखांकित किया कि आदेश की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने का अनुरोध भी सीमावधि समाप्त होने के बाद किया गया था, जिससे सीमावधि अधिनियम की धारा 12 के तहत कोई लाभ नहीं मिल सकता।
पोस्टमास्टर जनरल बनाम लिविंग मीडिया इंडिया लिमिटेड (2012) 3 SCC 563 का हवाला देते हुए, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सरकारी विभागों को सीमावधि कानून के तहत कोई विशेष छूट प्राप्त नहीं है।
अंतिम निर्णय
न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने कहा:
“हम इस अपील में हुई देरी को स्वीकार करने का यह उपयुक्त मामला नहीं मानते… अतः उपर्युक्त अपील समय barred मानी जाती है और तदनुसार खारिज की जाती है।”
कोर्ट ने रजिस्ट्रार जनरल को यह भी निर्देशित किया कि धारा 37 के अंतर्गत वाणिज्यिक अदालतों से संबंधित अपीलों में सीमावधि की सही रिपोर्टिंग सुनिश्चित की जाए।