इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि यदि पक्षकारों के बीच आपसी सहमति से कोई समझौता हो जाता है, तो बाद में किसी अन्य अदालत द्वारा दिए गए प्रतिकूल फैसले को आधार बनाकर उस समझौते को रद्द करने की मांग नहीं की जा सकती। न्यायालय ने एक वैवाहिक विवाद में समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के अपने पुराने आदेश को वापस लेने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया।
न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और न्यायमूर्ति सैयद क़मर हसन रिज़वी की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता नए पारिवारिक न्यायालय के फैसले के खिलाफ उचित कानूनी कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन इस आधार पर निपटाए जा चुके रिट मामले को फिर से नहीं खोला जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक पति और उसके परिवार वालों द्वारा दायर की गई एक आपराधिक विविध रिट याचिका से शुरू हुआ था। 9 जनवरी, 2025 को हाईकोर्ट की एक समन्वय पीठ ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धाराओं 323, 504, 506, 392 और 354 के तहत दर्ज एफ.आई.आर. और उससे जुड़ी सभी कार्रवाइयों को रद्द कर दिया था।

यह निर्णय पति (याचिकाकर्ता) और पत्नी (सूचनाकर्ता) के बीच 17 फरवरी, 2024 को हुए एक समझौता विलेख के आधार पर लिया गया था। इस समझौते को न्यायालय के वरिष्ठ रजिस्ट्रार द्वारा सत्यापित किया गया था, जिसमें दोनों पक्षों ने अपने सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने और एक-दूसरे के खिलाफ दायर सभी मामलों को वापस लेने पर सहमति व्यक्त की थी।
आदेश वापस लेने के लिए तर्क
पत्नी ने 27 मई, 2025 को एक आवेदन दायर कर हाईकोर्ट के 9 जनवरी के आदेश को वापस लेने की मांग की। उनके वकील ने तर्क दिया कि एक बाद के घटनाक्रम ने मूल समझौते के उद्देश्य को विफल कर दिया है।
याचिकाकर्ता ने लखनऊ के अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश-VI, पारिवारिक न्यायालय के 6 मई, 2025 के एक फैसले का हवाला दिया। इस फैसले में पति द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 के तहत दायर उस मुकदमे को खारिज कर दिया गया था, जिसमें उसने पत्नी के साथ अपनी शादी को अमान्य और शून्य घोषित करने की मांग की थी।
पत्नी ने दलील दी कि उसने समझौते के अनुसार सद्भावनापूर्वक हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत दायर अपनी तलाक की याचिका वापस ले ली थी। लेकिन, पति की विवाह रद्द कराने की याचिका खारिज होने से उसकी वैवाहिक स्थिति “दुविधा” में पड़ गई है, जिससे समझौते की भावना ही समाप्त हो गई है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
हाईकोर्ट की बेंच ने मामले के निर्विवाद तथ्यों पर ध्यान दिया:
- पत्नी ने पहले 6 जुलाई, 2013 को इस्लाम धर्म अपनाने के बाद एक अन्य व्यक्ति से शादी की थी।
- उसने 28 जून, 2020 को याचिकाकर्ता-पति से हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया।
- उसके पहले पति से तलाक की डिक्री 19 जनवरी, 2021 को मिली, जो कि याचिकाकर्ता-पति से उसकी शादी के बाद थी।
अदालत ने टिप्पणी की, “एक सीधे सवाल पर कि अलग-अलग धर्म के व्यक्तियों के बीच हिंदू रीति-रिवाज से विवाह कैसे हो सकता है, पक्षकारों या उनके वकीलों में से कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं दे सका।”
मामले के तथ्यों की जटिलता में जाए बिना, अदालत ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत शून्य विवाह पर स्थापित कानून पर चर्चा की। इसने धारा 11 और धारा 5(i) का हवाला दिया, जिसके अनुसार एक वैध हिंदू विवाह के लिए यह आवश्यक है कि विवाह के समय किसी भी पक्ष का जीवनसाथी जीवित न हो। इस शर्त का उल्लंघन करने वाला विवाह कानून की दृष्टि में स्वतः (ipso jure) शून्य होता है।
फैसले में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का उल्लेख किया गया, जिनमें शामिल हैं:
- देवकी पंजियारा बनाम शशि भूषण नारायण आजाद व अन्य (2013)
- यमुनाबाई अनंतराव अधव बनाम अनंतराव शिवराम अधव व अन्य (1988)
- एम. एम. मल्होत्रा बनाम भारत संघ व अन्य (2005)
- ए. सुभाष बाबू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य व अन्य (2011)
हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि वैवाहिक स्थिति की घोषणा केवल एक सक्षम अदालत द्वारा उचित कार्यवाही में ही की जा सकती है।
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण के अंत में, बेंच को आदेश वापस लेने के आवेदन में कोई दम नहीं मिला। पीठ के लिए फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति रिज़वी ने कहा:
“विपक्षी पक्ष संख्या 4/आवेदक द्वारा उठाई गई दलीलों को ध्यान में रखते हुए… हम इस न्यायालय द्वारा दिनांक 09.01.2025 के उक्त आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई अच्छा आधार नहीं पाते हैं, केवल किसी बाद के घटनाक्रम के आधार पर, वह भी एक सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया एक न्यायिक निर्णय दिनांक 06.05.2025।”
अदालत ने आवेदन को खारिज करते हुए उसे रिकॉर्ड पर ले लिया। यह स्पष्ट किया गया कि यदि पक्षकार पारिवारिक न्यायालय के 6 मई, 2025 के फैसले से व्यथित हैं, तो वे “कानून के तहत निर्धारित तरीके से उसके संबंध में उचित कानूनी उपाय करने के लिए” स्वतंत्र हैं।