क्या बिना प्रारंभिक जांच रिपोर्ट कि कॉपी दिए ग्राम प्रधान के वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार समाप्त करना सही है? जानिये इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क्या कहा

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 1947 के तहत ग्राम प्रधान बृज मोहन के वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार समाप्त करने के आदेश पर रोक लगा दी है। न्यायमूर्ति पंकज भाटिया ने मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे बड़ी पीठ के समक्ष विचारार्थ भेजने का निर्णय लिया। उन्होंने विशेष रूप से इस तथ्य पर आपत्ति जताई कि याचिकाकर्ता को प्रारंभिक जांच रिपोर्ट प्रदान नहीं की गई थी, जिससे उनका बचाव करने का अधिकार प्रभावित हुआ।

मामले की पृष्ठभूमि

बृज मोहन, जो एक निर्वाचित ग्राम प्रधान हैं, के वित्तीय और प्रशासनिक अधिकारों को 21 जनवरी 2025 के आदेश के तहत समाप्त कर दिया गया था। यह कार्रवाई उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम की धारा 95(1)(g) के तहत की गई थी, जिसमें उन पर वित्तीय और प्रशासनिक अनियमितताओं के आरोप लगाए गए थे। मुख्य आरोप निम्नलिखित थे:

  • हैंड पंपों की मरम्मत न होना (2018-2023) – याचिकाकर्ता पर आरोप था कि उन्होंने निधि निकालने के बावजूद हैंड पंपों की मरम्मत नहीं कराई।
  • स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालयों की अनुपस्थिति – आरोप था कि सूचीबद्ध घरों में शौचालय निर्माण नहीं हुआ।
  • प्रधानमंत्री आवास योजना (2015) के तहत धन का दुरुपयोग – याचिकाकर्ता पर आरोप था कि वे लाभार्थियों के दस्तावेज प्रस्तुत करने में विफल रहे।
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मामले में कानूनी पहलू

  1. निष्पक्ष सुनवाई और प्राकृतिक न्याय का अधिकार – याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि जिन आरोपों के आधार पर उनके अधिकार छीने गए, उनकी प्रारंभिक जांच रिपोर्ट उन्हें दी ही नहीं गई, जिससे उनका बचाव करने का अधिकार प्रभावित हुआ।
  2. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का संवैधानिक अधिकार – याचिकाकर्ता ने दलील दी कि बिना उचित जांच के एक निर्वाचित प्रतिनिधि के अधिकार समाप्त करना लोकतांत्रिक मूल्यों और संविधान के अनुच्छेद 243(c) के खिलाफ है।
  3. विवेकानंद यादव निर्णय की व्याख्या – राज्य सरकार ने हाई कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए फुल बेंच के विवेकानंद यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि ग्राम प्रधान प्रारंभिक जांच रिपोर्ट प्राप्त करने के हकदार नहीं हैं।

कोर्ट के अवलोकन और फैसला

न्यायमूर्ति पंकज भाटिया ने आदेश की वैधता की जांच करते हुए पाया कि इसमें उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। उन्होंने कहा कि हैंड पंप मरम्मत को लेकर लगाए गए आरोप वित्तीय अनियमितताओं को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं थे। इसी तरह, शौचालय निर्माण के आरोपों को लेकर याचिकाकर्ता ने दावा किया कि सभी शौचालय जियो-टैग किए गए हैं, लेकिन इसे पर्याप्त रूप से नहीं परखा गया। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत किए गए भुगतान सीधे लाभार्थियों के खातों में भेजे गए, जिससे याचिकाकर्ता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

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अदालत ने कहा:

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“एक निर्वाचित प्रधान के वित्तीय और प्रशासनिक अधिकारों को समाप्त करने जैसा कठोर आदेश त्रुटिपूर्ण तर्कों के आधार पर दिया गया है, जिसमें याचिकाकर्ता की ओर से प्रस्तुत स्पष्टीकरण पर उचित विचार नहीं किया गया।”

इसलिए, अदालत ने याचिकाकर्ता के अधिकार समाप्त करने के आदेश पर रोक लगा दी और अंतिम जांच पूरी होने तक उनके अधिकार बहाल करने का निर्देश दिया। इसके साथ ही, राज्य सरकार को जल्द से जल्द जांच पूरी कर रिपोर्ट पेश करने का भी आदेश दिया गया।

मामला बड़ी पीठ को भेजा गया

न्यायालय ने विवेकानंद यादव फैसले की व्याख्या को लेकर गंभीर सवाल उठाए और इसे बड़ी पीठ के समक्ष भेजने की सिफारिश की। न्यायमूर्ति भाटिया ने कहा कि प्रारंभिक जांच रिपोर्ट को याचिकाकर्ता से छिपाना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ हो सकता है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दीपक आनंद पाटिल बनाम महाराष्ट्र सरकार (2023) और टी. टाकानो बनाम SEBI (2022) मामलों का हवाला देते हुए कहा कि न्यायिक कार्यवाहियों में पारदर्शिता और निष्पक्षता आवश्यक है।

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अदालत ने अपने निर्णय में कहा:

“विवेकानंद यादव फैसले में अपनाई गई व्याख्या को लेकर संदेह उत्पन्न होता है… यदि प्रारंभिक जांच रिपोर्ट को आधार बनाकर प्रतिकूल आदेश पारित किया जाता है, तो उसे प्रभावित पक्ष को प्रदान किया जाना चाहिए।”

इस फैसले का असर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के अधिकारों और पंचायत राज कानून की व्याख्या पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।

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