इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट ‘कोर्ट मैनेजर’ सेवा नियम, 2022 और उत्तर प्रदेश जिला न्यायालय ‘कोर्ट मैनेजर’ सेवा नियम, 2022 को अधिसूचित करने में लगातार देरी के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई है। न्यायालय ने राज्य के मुख्य सचिव को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर इन नियमों के कार्यान्वयन के लिए एक ठोस समय सीमा प्रदान करने का निर्देश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला (WRIT – A No. 4860 of 2019) रश्मि सिंह और सात अन्य लोगों द्वारा दायर किया गया था, जो मानदेय के आधार पर विभिन्न न्यायालयों में कोर्ट मैनेजर के रूप में काम कर रहे हैं। याचिकाकर्ताओं ने स्थायी पदों के सृजन और बाद में उन्हें सिस्टम में समाहित करने की मांग की।
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मामले का सार नियमों के वित्तीय निहितार्थों के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसके लिए अधिसूचना से पहले राज्य सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होती है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 229 के तहत, हाईकोर्ट को इन नियमों को बनाने का अधिकार है, जिसके लिए केवल राज्यपाल द्वारा औपचारिक अनुमोदन की आवश्यकता होती है। हालांकि, राज्य सरकार बार-बार न्यायिक निर्देशों के बावजूद कार्रवाई करने में विफल रही है।
मुख्य कानूनी मुद्दे
सेवा नियमों की अधिसूचना में देरी: कोर्ट मैनेजरों के नियमितीकरण के लिए आवश्यक नियम, 12 मई, 2023 (जिला न्यायालय) और 2 सितंबर, 2023 (हाईकोर्ट) से राज्य सरकार के पास लंबित हैं।
न्यायिक स्वतंत्रता और राज्य सहयोग: हाईकोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा न्यायपालिका को उसके संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने में सहायता करने की आवश्यकता को रेखांकित किया।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का बार-बार पालन न करना: सर्वोच्च न्यायालय ने रश्मि सिंह एवं अन्य बनाम प्रमोद कुमार श्रीवास्तव एवं अन्य में हाईकोर्ट को मामले में तेजी लाने का निर्देश दिया था, लेकिन राज्य की निष्क्रियता बनी हुई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ और निर्णय
न्यायमूर्ति आलोक माथुर की अध्यक्षता में न्यायालय ने समय पर कार्रवाई करने में राज्य सरकार के उदासीन रवैये पर अपनी नाराजगी व्यक्त की। पीठ ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने दो बार त्वरित समाधान का निर्देश दिया था, फिर भी कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई।
नौकरशाही की निष्क्रियता के विरुद्ध तीखी टिप्पणियाँ
सरकार की सुस्ती को उजागर करते हुए न्यायालय ने कहा:
“न्याय प्रदान करने का कार्य संविधान द्वारा न्यायपालिका को दिया गया है, लेकिन राज्य सरकार को, जहाँ भी आवश्यक हो, न्यायिक प्रणाली को अपने संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक साधन प्रदान करने और सहयोग करना होगा।”
न्यायालय ने आगे जोर दिया कि यह कोई अलग-थलग मामला नहीं था, बल्कि प्रशासनिक अक्षमता के एक बड़े पैटर्न का संकेत था। उत्तर प्रदेश सिविल न्यायालयों में स्टेनोग्राफरों के वर्गीकरण से संबंधित एक अन्य मामले (रिट ए संख्या 1781/2024) में भी इसी तरह की देरी देखी गई थी।
हाईकोर्ट ने कहा कि बार-बार स्थगन के बावजूद, राज्य सरकार नियमों को अधिसूचित करने के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा प्रदान करने में विफल रही है। सरकार ने पहले दावा किया था कि नियम “अंतिम परामर्श” के अधीन थे और जल्द ही उन्हें कैबिनेट के समक्ष रखा जाएगा। हालांकि, आगे की देरी के लिए आदर्श आचार संहिता (आगामी चुनावों के कारण) का हवाला दिया गया।
निराशा व्यक्त करते हुए, न्यायमूर्ति माथुर ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 11 मार्च, 2025 को अदालत में उपस्थित होने का आदेश दिया, जिसमें स्पष्ट निर्देश दिए गए कि अधिसूचना कब जारी की जाएगी। न्यायालय ने जोर दिया:
“व्यक्तिगत हलफनामों और बार-बार अवसरों के बावजूद, बहुत कुछ नहीं किया जा रहा है। राज्य सरकार नौकरशाही बाधाओं की आड़ में न्यायिक प्रशासन में देरी नहीं कर सकती।”
मामले की अगली सुनवाई 11 मार्च, 2025 को होगी।
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता अखिलेश कुमार कालरा, अविनाश चंद्र, चिन्मय मिश्रा, महेंद्र नाथ यादव, मनीष सिंह चौहान, मनु कुमार श्रीवास्तव, परितोष शुक्ला और संदीप कुमार श्रीवास्तव ने किया। प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त स्थायी सरकारी वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता सी.एस.सी., ए.एस.जी., अम्बरीश राय, आनंद द्विवेदी, गौरव मेहरोत्रा, नीरव चित्रवंशी और यू.एन. मिश्रा ने किया।