इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत पीड़ितों को दिए गए अवसर और अधिकारों का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। अदालत ने यह टिप्पणी दुष्कर्म के एक मामले में दो आरोपियों को जमानत देते हुए की।
न्यायमूर्ति अनिल कुमार ने 24 नवंबर को पारित आदेश में अपीलकर्ताओं अज़नान खान और फुरकान इलाही को जमानत देते हुए लगभग नौ वर्षों की देरी से दर्ज एफआईआर और पीड़िता के “अनुचित” आचरण का संज्ञान लिया। पीड़िता स्वयं एक प्रैक्टिसिंग अधिवक्ता हैं।
एफआईआर के अनुसार, पीड़िता ने आरोप लगाया कि इलाही वर्ष 2016 में उससे मिला, पहले उसे एक होटल और बाद में अपने दोस्त खान के निवास पर ले गया, जहां कथित तौर पर खान ने बाहर से दरवाजा बंद किया और इलाही ने उसके साथ दुष्कर्म किया। उसका आरोप है कि इलाही ने शादी का भरोसा देकर लगातार शारीरिक संबंध बनाए और उसे गर्भपात कराने वाली गोलियां खाने के लिए मजबूर किया।
हालांकि एफआईआर वर्ष 2025 में, यानी लगभग नौ साल बाद दर्ज हुई। अपीलकर्ताओं की ओर से कहा गया कि इतनी लंबी देरी इस बात का संकेत है कि मामला कानूनी सलाह के बाद दर्ज किया गया। यह भी बताया गया कि पीड़िता स्वयं अधिवक्ता हैं और उन्होंने आरोपियों तथा अन्य लोगों के खिलाफ कई मामले दर्ज कराए हैं। अदालत को बताया गया कि एक आरोपी द्वारा अगस्त में पीड़िता के खिलाफ मामला दर्ज कराने के केवल 20 दिन बाद यह एफआईआर दर्ज हुई।
सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि देरी का कारण पीड़िता को दिया गया विवाह का झूठा आश्वासन और आरोपियों की ओर से दबाव था।
अदालत ने पीड़िता के आचरण और देरी पर संज्ञान लेते हुए कहा कि मामले की परिस्थितियों, अपराध की प्रकृति और उपलब्ध साक्ष्यों को देखते हुए अपीलकर्ता जमानत के हकदार हैं।
आदेश समाप्त करते हुए अदालत ने एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों के उपयोग पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की:
“इस आदेश के अंत में, यह न्यायालय उल्लेख करना चाहेगा कि एससी-एसटी एक्ट के तहत पीड़ित को प्रत्येक कार्यवाही में उपस्थित होने का अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से दिए गए अवसर और अधिकारों का दुरुपयोग और दुराचार नहीं होना चाहिए।”
आगामी सुनवाई के साथ मामला आगे बढ़ेगा, जबकि दोनों आरोपी जमानत पर रिहा रहेंगे।

