इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) ने उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसके तहत एक अधिवक्ता को द्विविवाह (Bigamy) के आरोपों पर 10 साल के लिए प्रैक्टिस करने से निलंबित कर दिया गया था। जस्टिस शेखर बी. सराफ और जस्टिस मंजिव शुक्ला की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है। कोर्ट ने विशेष रूप से इस बात पर नाराजगी जताई कि जब कारण बताओ नोटिस में सुनवाई की तारीख 10 मार्च, 2025 तय की गई थी, तो निलंबन आदेश उससे पहले ही 23 फरवरी, 2025 को कैसे पारित कर दिया गया।
कोर्ट ने इस कार्रवाई को “समय से पहले” (premature) करार दिया और स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता को कथित अपराध के लिए किसी सक्षम न्यायालय द्वारा दोषी नहीं ठहराया गया है, जो इसे उन मामलों से अलग करता है जहां दोषसिद्धि के आधार पर नैतिक अधमता (Moral Turpitude) तय होती है।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, अधिवक्ता सुशील कुमार रावत ने उत्तर प्रदेश बार काउंसिल द्वारा पारित 23 फरवरी, 2025 के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। इस आदेश के जरिए बार काउंसिल ने उन्हें लखनऊ की जिला अदालत या भारत के किसी भी अन्य प्राधिकरण के समक्ष वकालत करने से 10 साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया था।
याचिकाकर्ता का कहना था कि पूरी अनुशासनात्मक कार्यवाही उनकी पीठ पीछे और उन्हें कोई नोटिस दिए बिना की गई। उन्होंने तर्क दिया कि यह सजा आधारहीन है क्योंकि उन्हें द्विविवाह के अपराध में दोषी नहीं ठहराया गया है। इसके अलावा, उन्होंने यह भी दलील दी कि भले ही द्विविवाह साबित हो जाए, यह “नैतिक अधमता” की श्रेणी में आने वाला अपराध नहीं है।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता का पक्ष: याचिकाकर्ता के वकील श्री राकेश कुमार ने तर्क दिया कि निलंबन आदेश उचित नोटिस के बिना पारित किया गया था। ‘नैतिक अधमता’ के कानूनी प्रश्न पर, उन्होंने राज किशोर यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (रिट-सी संख्या 6488/2025) में इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ के फैसले का हवाला दिया। उस फैसले में कहा गया था कि किसी अपराध को नैतिक अधमता मानने के लिए, कृत्य का “स्वाभाविक रूप से ‘नीच’, ‘घृणित’, ‘भ्रष्ट’ होना या ‘भ्रष्टता दर्शाने वाला कोई संबंध’ होना आवश्यक है।”
वकील ने दलील दी कि द्विविवाह का कृत्य इस परिभाषा में नहीं आता है और यह “आम जनता की अंतरात्मा को नहीं झकझोरता है।”
प्रतिवादी का पक्ष: यूपी बार काउंसिल का प्रतिनिधित्व करते हुए वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता को संशोधित आदेश तामील कराया गया था, हालांकि कोर्ट ने नोट किया कि समय दिए जाने के बावजूद तामील का कोई सबूत पेश नहीं किया गया।
द्विविवाह और नैतिक अधमता के मुद्दे पर, प्रतिवादी ने मद्रास हाईकोर्ट की खंडपीठ के फैसले पी. मोहनसुंदरम बनाम इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (AIR 2013 MADRAS 221) का हवाला दिया। उस मामले में एक चार्टर्ड अकाउंटेंट को हटाना सही ठहराया गया था, जिसमें कोर्ट ने माना था कि द्विविवाह कानून के खिलाफ कार्य करना है और यह “शर्मनाक और नीच गतिविधियों” में शामिल होने जैसा है, इसलिए यह नैतिक अधमता के अर्थ में आता है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
खंडपीठ ने ‘नैतिक अधमता’ की अवधारणा और बार काउंसिल के आदेश की प्रक्रियात्मक वैधता की जांच की।
नैतिक अधमता पर: कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले एसबीआई बनाम पी. सुप्रा मणियन (2019) का उल्लेख किया, जिसमें नैतिक अधमता के परीक्षण निर्धारित किए गए थे।
पीठ ने प्रतिवादियों द्वारा उद्धृत पी. मोहनसुंदरम फैसले से वर्तमान मामले को अलग बताया। कोर्ट ने कहा:
“मद्रास हाईकोर्ट ने पी. मोहनसुंदरम (सुप्रा) में जिस मामले पर विचार किया था, उसमें व्यक्ति को द्विविवाह के लिए दोषी ठहराया गया था। वर्तमान मामले में, आज तक द्विविवाह के लिए कोई दोषसिद्धि (Conviction) नहीं हुई है। केवल इसी आधार पर यह निर्णय वर्तमान मामले से अलग है।”
प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन: कोर्ट ने बार काउंसिल की कार्यवाही में नोटिस और आदेश की समयसीमा को लेकर एक स्पष्ट प्रक्रियात्मक त्रुटि पाई। पीठ ने कहा:
“कारण बताओ नोटिस 17 फरवरी, 2025 को जारी किया गया था और उपस्थिति के लिए 10 मार्च, 2025 की तारीख तय की गई थी, जबकि आक्षेपित आदेश 23 फरवरी, 2025 को ही पारित कर दिया गया। यह स्पष्ट करता है कि आदेश एकपक्षीय (Ex-parte) रूप से पारित किया गया है और सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि वह अधिकारियों द्वारा नोटिस तामील कराने के संबंध में दिए गए “सबूतों” से आश्वस्त नहीं है। जजों ने कहा कि याचिकाकर्ता को 10 साल के लिए निलंबित करने वाला एकपक्षीय आदेश बरकरार नहीं रखा जा सकता।
निर्णय
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रिट याचिका स्वीकार कर ली और 23 फरवरी, 2025 के आक्षेपित आदेश को रद्द कर दिया।
पीठ ने बार काउंसिल के अधिकारियों को निर्देश दिया कि:
- याचिकाकर्ता को एक उचित नोटिस प्रदान करें।
- नोटिस के बाद, 12 सप्ताह की अवधि के भीतर कानून के अनुसार एक तर्कसंगत (reasoned) आदेश पारित करें।
केस विवरण:
- केस टाइटल: सुशील कुमार रावत बनाम यूपी बार काउंसिल और अन्य
- केस नंबर: रिट-सी नंबर 10621 ऑफ 2025
- कोरम: जस्टिस शेखर बी. सराफ और जस्टिस मंजिव शुक्ला
- याचिकाकर्ता के वकील: राकेश कुमार, दुष्यंत कुमार नायक
- प्रतिवादी के वकील: सुभाष चंद्र पांडे, शाहिद सलाम, जेबा वासी
- साइटेशन: 2025:AHC-LKO:78203-DB

