इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अहम आदेश में जल निगम के कर्मचारी के खिलाफ विभागीय जांच की मांग वाली रिट याचिका को खारिज करते हुए कहा कि कोई अजनबी या ‘बिजीबॉडी’ (बेकार दखल देने वाला व्यक्ति) ऐसे मामले में कार्यवाही शुरू करने का अधिकार नहीं रखता। न्यायमूर्ति अजय भनोट की एकलपीठ ने पाया कि याचिका अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इसे दुर्भावनापूर्ण इरादे से दायर किया गया है। अदालत ने यह भी दोहराया कि लोकहित याचिका (PIL) सेवा मामलों में स्वीकार्य नहीं है।
अदालत ने याचिकाकर्ता अधिवक्ता पर एक अनोखी सजा लगाते हुए उन्हें गौतमबुद्ध नगर की ट्रायल कोर्ट में पांच मामलों में निःशुल्क (प्रो बोनो) सहायता करने का निर्देश दिया।
मामला पृष्ठभूमि
यह रिट याचिका (WRIT A No. 6124 of 2025) अधिवक्ता सुल्तान चौधरी ने दायर की थी, जिसमें गाज़ियाबाद स्थित उत्तर प्रदेश जल निगम के सहायक अभियंता संजय विदूरी के खिलाफ विभागीय जांच के निर्देश देने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता ने खुद को समाज के कल्याण हेतु कार्य करने वाला बताया, परंतु अदालत ने टिप्पणी की कि “इस सामान्य कथन के अलावा अभिलेख में याचिकाकर्ता की साख साबित करने के लिए कोई सामग्री नहीं है।”

अदालत का विश्लेषण व टिप्पणियां
न्यायमूर्ति भानोत ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता का मामले से कोई संबंध नहीं है। फैसले में कहा गया, “याचिकाकर्ता न तो जल निगम का कर्मचारी है, न ही उक्त संजय विदूरी उर्फ संजय कुमार का अनुशासनिक प्राधिकारी।” अदालत ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की सेवा शर्तें विशेष सेवा नियमों द्वारा नियंत्रित होती हैं, जो केवल नामित अनुशासनिक प्राधिकारी को कार्रवाई का अधिकार देती हैं।
अदालत ने इन नियमों की महत्ता पर जोर देते हुए कहा, “सेवा नियम सरकारी कर्मचारियों को बाहरी दबावों और प्रभाव से भी बचाते हैं, जो सरकारी कर्तव्यों के ईमानदार निर्वहन में बाधा डाल सकते हैं। सेवा नियम सरकारी सेवकों की स्वतंत्रता की ढाल हैं और उन्हें किसी भी बाहरी हस्तक्षेप के भय के बिना कार्य करने में सक्षम बनाते हैं।”
तीसरे पक्ष की शिकायतों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए अदालत ने कहा, “ऐसे बाहरी व्यक्तियों की शिकायतें स्वीकार करने से शासन-प्रशासन के कामकाज पर दूरगामी नकारात्मक असर पड़ेगा। यह सरकारी कर्मचारियों के मनोबल को गिराएगा और सरकारी कार्यकुशलता के लिए हानिकारक होगा।”
लोकस स्टैंडी और कानूनी आधार
लोकस स्टैंडी (अधिकारिता) के मुद्दे पर अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता अपने अधिकार को साबित करने में विफल रहा। सुप्रीम कोर्ट के विनॉय कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के निर्णय का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 226 के तहत राहत उसी को दी जा सकती है, जिसके पक्ष में कोई विधिक अधिकार हो। अदालत ने अय्यूबखान नूरखान पठान बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भी उद्धृत की कि “कोई अजनबी किसी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकता” और “असली पीड़ित” वही है, जिसे वास्तविक ‘कानूनी क्षति’ हुई हो, न कि ‘मानसिक या काल्पनिक क्षति’।
सेवा मामलों में PIL की मनाही
अदालत ने सेवा मामलों में PIL की अस्वीकृति पर भी विस्तार से चर्चा की और सुप्रीम कोर्ट के दुर्योधन साहू बनाम जितेन्द्र कुमार मिश्रा तथा अशोक कुमार पांडे बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के फैसलों का हवाला दिया। अदालत ने कहा कि ऐसे मुकदमों को अनुमति देने से सेवा विवादों के शीघ्र निस्तारण का उद्देश्य विफल हो जाएगा और अदालतों को “फालतू याचिकाओं को छांटकर, उन्हें लागत के साथ खारिज” करना चाहिए।
दुर्भावनापूर्ण याचिका और अधिवक्ता की जिम्मेदारी
अदालत ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा, “विवाद अदालतों के लिए शरारती खेल नहीं है और न ही अदालतें बाहरी दखल देने वालों का खेल का मैदान हैं।” अदालत ने पाया कि यह याचिका “दुर्भावनापूर्ण है, अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और कर्मचारी को परेशान व ब्लैकमेल करने के लिए दायर की गई है।”
अदालत ने अधिवक्ता होने के नाते याचिकाकर्ता पर विशेष जिम्मेदारी की बात कही—“बार के सदस्यों पर यह विशेष जिम्मेदारी है कि वे कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनें और अधिवक्ता होने के विशेषाधिकार का दुरुपयोग करके दुर्भावनापूर्ण मुकदमे दायर न करें।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए अधिवक्ता श्री सुल्तान चौधरी को आदेश दिया कि वे “गौतमबुद्ध नगर की ट्रायल कोर्ट में पांच मामलों में निःशुल्क (प्रो बोनो) सहायता करें।” जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, गौतमबुद्ध नगर, को इन मामलों का आवंटन करने का निर्देश दिया गया।
अदालत ने स्पष्ट किया कि यह आदेश कर्मचारी के खिलाफ लंबित किसी अन्य कार्यवाही, जैसे कि लोकायुक्त, पर प्रभाव नहीं डालेगा।