इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ऋण वसूली अधिकरण (डीआरटी), लखनऊ में कथित प्रक्रियात्मक अनियमितताओं की जांच के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को व्यापक जांच के आदेश दिए हैं। यह मामला, मामले अनुच्छेद 227 संख्या 5381/2024, बैंक ऑफ बड़ौदा द्वारा दायर किया गया था, जिसे इसके अधिकृत अधिकारी के माध्यम से श्री विनय अग्रवाल ने प्रस्तुत किया। याचिका में डीआरटी के पीठासीन अधिकारी ए.एच. खान द्वारा उनकी सेवानिवृत्ति से पहले पारित संदिग्ध आदेशों पर सवाल उठाए गए।
न्यायमूर्ति पंकज भाटिया, जिन्होंने इस मामले की सुनवाई की, ने न्यायिक आचरण और प्रक्रियात्मक मानकों के उल्लंघन को गंभीरता से चिह्नित किया। उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण वित्तीय विवादों का निर्णय करने वाले अधिकरणों की साख और निष्पक्षता पर कोई दाग नहीं लगना चाहिए। हाईकोर्ट का यह आदेश अर्ध-न्यायिक संस्थानों में जनता का विश्वास बहाल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, बैंक ऑफ बड़ौदा, की ओर से अधिवक्ता प्रशांत कुमार श्रीवास्तव ने पक्ष रखा, जबकि प्रतिवादियों, जिनमें डीआरटी और निजी पक्ष शामिल थे, की ओर से अधिवक्ता अपूर्व देव और अन्य ने तर्क प्रस्तुत किए। मामला सारफेसी अधिनियम के तहत दायर एक संपत्ति स्वीकृत आवेदन से संबंधित था, जो बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा वित्तीय बकाया की वसूली को सुविधाजनक बनाता है।
विवाद तब उत्पन्न हुआ जब डीआरटी ने 18 सितंबर, 2024 को एक आदेश पारित किया, जिसे कथित तौर पर बिना उचित सुनवाई या आदेश की डिक्टेशन के जारी किया गया। इस आदेश को बाद में 27 सितंबर, 2024 को एक संशोधन पत्र (कॉरिजेंडम) के माध्यम से संशोधित किया गया, जिसमें आदेश की तारीख 24 सितंबर, 2024 दर्शाई गई। इन प्रक्रियात्मक विसंगतियों ने कदाचार और दुर्भावनापूर्ण मंशा के आरोपों को जन्म दिया।
याचिकाकर्ता ने अतिरिक्त अनियमितताओं की ओर इशारा किया:
- मामला 18 सितंबर, 2024 को सुनवाई या निर्णय के लिए सूचीबद्ध नहीं था, जिससे आदेश की वैधता पर सवाल खड़ा हुआ।
- आदेश की तारीख बदलने वाला संशोधन पत्र (कॉरिजेंडम) बाद में पेश किया गया और डीआरटी के आधिकारिक रिकॉर्ड में अनुपस्थित पाया गया।
- ट्रिब्यूनल के स्टेनोग्राफर ने पुष्टि की कि प्रारंभिक आदेश के लिए कोई डिक्टेशन नहीं लिया गया था।
इन विसंगतियों ने आदेशों की वैधता पर संदेह पैदा किया और आरोप लगाए गए कि यह कुछ विशेष पक्षों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया था।
प्रमुख कानूनी मुद्दे
हाईकोर्ट ने निम्नलिखित कानूनी प्रश्नों पर विचार किया:
- न्यायिक आदेशों में प्रक्रियात्मक अनियमितताओं की वैधता:
- क्या बिना प्रक्रियात्मक मानदंडों का पालन किए पारित आदेश वैध माने जा सकते हैं?
- ऐसे अनियमितताओं का वादी के अधिकारों पर कितना प्रभाव पड़ता है?
- ट्रिब्यूनल अधिकारियों की जवाबदेही और आचरण:
- पक्षपात, भाई-भतीजावाद, और भ्रष्टाचार के आरोपों ने पीठासीन अधिकारी के व्यक्तिगत और व्यावसायिक आचरण पर सवाल उठाए।
- अनुच्छेद 227 के तहत पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार का दायरा:
- यह मामला हाईकोर्ट की भूमिका को रेखांकित करता है कि अधिकरण कानूनी और प्रक्रियात्मक सीमाओं के भीतर कार्य करें।
- त्वरित वसूली और उधारकर्ताओं के अधिकारों का संतुलन:
- अदालत ने उधारकर्ताओं के संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 300-ए) की सुरक्षा के महत्व पर जोर दिया।
अदालत की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति भाटिया ने पीठासीन अधिकारी के कार्यों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा:
“अधिकरणों को बैंकिंग बकाया की त्वरित वसूली सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त शक्तियां दी गई हैं, लेकिन उनके कामकाज पर कोई भी संदेह इन संस्थानों पर रखे गए विश्वास को कमजोर करता है। अर्ध-न्यायिक निकायों की साख से समझौता नहीं किया जा सकता।”
अदालत ने कहा कि डीआरटी को वित्तीय वसूली के उद्देश्यों और उधारकर्ताओं के संवैधानिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए। अदालत ने यह भी जोड़ा कि अधिकरण अधिकारियों द्वारा शक्तियों का निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से उपयोग किया जाना चाहिए।
सीबीआई जांच का निर्देश
डीआरटी लखनऊ के रजिस्ट्रार द्वारा प्रस्तुत एक गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर, अदालत ने अनियमितताओं के प्राथमिक साक्ष्य पाए। रिपोर्ट में खुलासा किया गया:
- विवादित आदेश 18 सितंबर, 2024 को ट्रिब्यूनल के स्टेनोग्राफर को डिक्टेशन नहीं दिया गया।
- 27 सितंबर, 2024 को जारी संशोधन पत्र रिकॉर्ड में अनुपस्थित था।
- पीठासीन अधिकारी ए.एच. खान ने 27 सितंबर, 2024 को सेवानिवृत्ति से पहले यह आदेश पारित किया।
हाईकोर्ट ने सीबीआई एंटी-करप्शन ब्रांच, लखनऊ को डीआरटी के रिकॉर्ड की जांच और गहन जांच का निर्देश दिया। सीबीआई को यह अधिकार दिया गया कि वे:
- जांच करें कि आदेशों को पीछे की तारीख में जारी किया गया था या नहीं।
- पक्षपात और भाई-भतीजावाद के आरोपों की जांच करें।
- दोषियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करें और उचित कानूनी कार्रवाई करें।
सीबीआई को 10 दिसंबर, 2024 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया है।
पिछली शिकायतें और संदर्भ
यह पहली बार नहीं है जब पीठासीन अधिकारी पर कदाचार के आरोप लगे हैं। इससे पहले, डीआरटी बार एसोसिएशन ने शिकायतें दर्ज की थीं, जिनमें:
- मामलों के आवंटन में पक्षपात और भाई-भतीजावाद।
- अधिवक्ताओं के प्रति धमकी और दुर्व्यवहार।
- आदेशों को पारित करने में प्रक्रियात्मक अनियमितताएं शामिल थीं।
हाईकोर्ट ने पहले डीआरएटी के चेयरमैन को ट्रिब्यूनल (सेवा की शर्तें) नियम, 2021 के तहत जांच करने का निर्देश दिया था, लेकिन कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की गई। वर्तमान मामला इन लंबित शिकायतों को आगे बढ़ाता है।
मामले की अगली सुनवाई 10 दिसंबर, 2024 को निर्धारित की गई है, जब सीबीआई की रिपोर्ट की समीक्षा की जाएगी। तब तक, हाईकोर्ट ने डीआरटी के विवादित आदेशों पर रोक लगा दी है।