इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि यदि किसी समझौता ज्ञापन (MOU) में यह उल्लेख है कि भुगतान एक निश्चित तारीख “से पहले” किया जाना है, तो उस तारीख से पूर्व भी एक कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण मौजूद माना जाएगा। न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act), 1881 की धारा 138 के तहत कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया।
यह फैसला न्यायमूर्ति संजय कुमार पचौरी ने गौरव शर्मा द्वारा दायर दो आवेदनों पर सुनवाई करते हुए सुनाया, जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ चेक बाउंस के मामलों को रद्द करने की मांग की थी।
अदालत में आवेदक गौरव शर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री मनीष तिवारी के साथ सुश्री श्रियांशी उपाध्याय (श्री औशिम लूथरा की ओर से) ने पक्ष रखा। वहीं, विपक्षी पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री वी.पी. श्रीवास्तव के साथ श्री इंद्र देव मिश्रा और सुश्री अंजू अग्रवाल पेश हुए। उत्तर प्रदेश सरकार का प्रतिनिधित्व श्री करुणाकर सिंह, विद्वान ए.जी.ए. ने किया।

मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद “बांके बिहारी विद्या मंदिर” नामक एक साझेदारी फर्म के विघटन से उत्पन्न हुआ था। आवेदक गौरव शर्मा और विपक्षी पक्ष अंकित अग्रवाल और आशीष अग्रवाल इस फर्म में भागीदार थे। साझेदारी समाप्त करने के निर्णय के बाद, 4 जनवरी, 2020 को एक समझौता ज्ञापन (MOU) निष्पादित किया गया।
MOU के अनुसार, श्री शर्मा सेवानिवृत्त भागीदारों को कुल 58,00,000 रुपये और 38,95,193 रुपये का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे। इसके अनुसरण में, श्री शर्मा ने 25 सितंबर, 2020 की तारीख वाले दो चेक जारी किए।
एक चेक 30 सितंबर, 2020 को और दूसरा 5 अक्टूबर, 2020 को बैंक में प्रस्तुत किया गया। दोनों चेक “अपर्याप्त धनराशि” और आवेदक द्वारा “भुगतान रोकने के निर्देश” के कारण अनादरित (dishonour) हो गए। इसके बाद, 14 अक्टूबर, 2020 के कानूनी नोटिस का कोई जवाब न मिलने पर, श्री शर्मा के खिलाफ एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत दो अलग-अलग शिकायतें दर्ज की गईं, जिसके आधार पर अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, आगरा ने 22 फरवरी, 2021 को उन्हें तलब करने का आदेश दिया।
पक्षों की दलीलें
आवेदक गौरव शर्मा की ओर से मुख्य दलील यह थी कि जिस तारीख को चेक प्रस्तुत किए गए, उस दिन कोई कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण या देनदारी मौजूद नहीं थी। उनके वकील ने तर्क दिया कि चेक MOU के अनुसार “सिक्योरिटी चेक” के रूप में दिए गए थे, और भुगतान की देनदारी 31 दिसंबर, 2021 को या उससे पहले पूरी होनी थी। इसलिए, सितंबर और अक्टूबर 2020 में चेकों को प्रस्तुत करना समय से पहले था। यह भी तर्क दिया गया कि शिकायत एक ऐसे पावर ऑफ अटॉर्नी धारक के माध्यम से दायर की गई थी जिसे लेनदेन की जानकारी नहीं थी, जो मामले में एक “गंभीर दोष” था।
इसके विपरीत, विपक्षी पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट ने सही तरीके से अपराध का संज्ञान लिया था। यह दलील दी गई कि चूँकि चेक जारी किए गए थे और उन पर हस्ताक्षर स्वीकार किए गए थे, “चेक धारक के पक्ष में कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण की धारणा उत्पन्न होगी।” अनादरण के बाद निर्धारित समय के भीतर आवेदक द्वारा राशि का भुगतान करने में विफल रहने पर ही एन.आई. एक्ट के तहत कार्यवाही शुरू की गई थी।
न्यायालय का विश्लेषण और MOU की व्याख्या
हाईकोर्ट ने अपने विश्लेषण को इस मुख्य प्रश्न के उत्तर पर केंद्रित किया: “क्या 5.10.2020 और 30.9.2020 को आवेदक के खिलाफ कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण या देनदारी मौजूद थी?”
न्यायालय ने MOU के खंडों की सावधानीपूर्वक जांच की। अदालत ने पाया कि खंड 1 और 2 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आवेदक “…31.12.2020 से पहले” भागीदारों की पूंजी का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा। अदालत ने इस भाषा को “आवेदक की देनदारी के संबंध में पार्टियों के बीच एक स्पष्ट और विशिष्ट समझौता” माना।
अदालत ने आवेदक के उस तर्क को खारिज कर दिया जिसमें “31.12.2021” की तारीख का उल्लेख करने वाले एक अन्य खंड पर भरोसा किया गया था। न्यायमूर्ति पचौरी ने स्पष्ट किया कि यह तारीख केवल ब्याज लगाने से संबंधित थी। फैसले में कहा गया, “खंड संख्या 3 में उल्लिखित ‘31.12.2021 को या उससे पहले’ शब्द की कोई ऐसी व्याख्या नहीं है कि देय राशि 31.12.2021 को या उससे पहले देय है। उक्त तिथि केवल देय राशि पर 12% प्रति वर्ष ब्याज के लिए देनदारी तय कर रही है।”
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण के समापन पर, अदालत ने आवेदक के तर्कों को “गलत और अस्थिर” पाया।
न्यायमूर्ति पचौरी ने कहा: “मामले के तथ्यों, परिस्थितियों और कानून की स्थिति को ध्यान में रखते हुए, मेरा सुविचारित मत है कि MOU के खंड 1 और 2 की शर्तों के अनुसार, आवेदक ने 58,00,000/- रुपये और 38,95,193/- रुपये की राशि का भुगतान ‘31.12.2020 से पहले’ करने पर सहमति व्यक्त की थी… आवेदक के खिलाफ क्रमशः 5.10.2020 और 30.9.2020 को एक कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण मौजूद था।”
आवेदनों में कोई सार न पाते हुए, हाईकोर्ट ने दोनों याचिकाओं को खारिज कर दिया और किसी भी अंतरिम आदेश को रद्द कर दिया, जिससे आगरा की निचली अदालत में कार्यवाही जारी रखने का मार्ग प्रशस्त हो गया।