इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि कोई आपराधिक मामला, जिसमें सत्र-न्यायालय द्वारा विचारणीय (Sessions-triable) अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट के समक्ष संज्ञान (cognizance) लेने के बाद लंबित है और अभी तक सेशन कोर्ट को सुपुर्द (commit) नहीं किया गया है, तो वह मजिस्ट्रेट पासपोर्ट के लिए ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र’ (NOC) देने की अर्जी पर फैसला करने के लिए सक्षम है।
न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने 14 अक्टूबर, 2025 को एक आदेश पारित करते हुए, लखनऊ के एक मजिस्ट्रेट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसने तकनीकी आधार पर एक आवेदक की पासपोर्ट NOC याचिका को खारिज कर दिया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह निर्णय श्रीमती नेहा अरोड़ा द्वारा दायर एक धारा 482 (Cr.P.C.) आवेदन (संख्या 8668/2025) में आया। याचिकाकर्ता ने एडिशनल सिविल जज (J.D.)/FTC-50, लखनऊ द्वारा पारित 13.08.2025 के एक आदेश को चुनौती दी थी। इस आदेश के तहत, केस नंबर 54683/2024 में उनके पासपोर्ट नवीनीकरण के लिए NOC की अर्जी को खारिज कर दिया गया था।
याचिकाकर्ता के खिलाफ अंतर्निहित आपराधिक मामले में IPC की धारा 323, 328, 376, 384, 504 और 506 के तहत आरोप शामिल हैं। फैसले में कहा गया है कि विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिया गया था, लेकिन मामले को सेशन कोर्ट को सुपुर्द नहीं किया गया था, बावजूद इसके कि इसमें धारा 376 जैसा गंभीर अपराध शामिल था, जो विशेष रूप से सेशन कोर्ट द्वारा विचारणीय है।
याचिकाकर्ता ने अपनी बेटी के यू.के. में पढ़ाई करने के कारण पासपोर्ट नवीनीकरण की आवश्यकता के लिए यह आवेदन दिया था।
पक्षों की दलीलें
हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी विवाद यह था: “…यदि चार्जशीट में कथित अपराध सेशन द्वारा विचारणीय हैं, लेकिन संज्ञान लेने के बाद मामला मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित है, तो क्या मजिस्ट्रेट को पासपोर्ट जारी करने या किसी अन्य देश जाने की अनुमति देने के आवेदन पर निर्णय लेने का अधिकार है…”
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील श्री नदीम मुर्तजा ने दलील दी कि निचली अदालत ने 10.10.2019 और 06.12.2024 के भारत सरकार (विदेश मंत्रालय) द्वारा जारी कार्यालय ज्ञापन (office memorandum) पर विचार किए बिना आवेदन को खारिज कर दिया था।
यह तर्क दिया गया कि इन ज्ञापनों में “स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुमति उस ‘संबंधित अदालत’ से आवश्यक है ‘जहां मामला लंबित है’।” वकील ने तर्क दिया कि चूंकि मामला वर्तमान में मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित है, “इसलिए निचली अदालत का यह दायित्व था कि वह तकनीकी आधार पर नहीं, बल्कि गुण-दोष (merit) के आधार पर आवेदन पर निर्णय ले।”
याचिकाकर्ता के वकील ने राजेंदर कुमार जैन बनाम स्टेट (1980 3 SCC 435) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया। यह प्रस्तुत किया गया कि उक्त मामले में (जो एक सेशन-ट्राइएबल केस में अभियोजन वापस लेने [S. 321 Cr.P.C.] से संबंधित था), सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि “निर्णय लेने की शक्ति उस अदालत के पास है जहां मामला लंबित है”। यह तर्क दिया गया कि यही सिद्धांत वर्तमान मामले पर भी लागू होता है।
अतिरिक्त शासकीय अधिवक्ता (AGA) और शिकायतकर्ता के वकील ने “याचिकाकर्ता के वकील द्वारा तर्कित कानूनी प्रावधानों पर कोई विवाद नहीं किया।” उन्होंने केवल यह कहा कि “मामला मजिस्ट्रेट द्वारा सेशन कोर्ट को सुपुर्द नहीं किया जा रहा है।”
कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
माननीय न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने दलीलों, रिकॉर्ड और उद्धृत फैसले पर विचार करने के बाद याचिकाकर्ता की कानूनी स्थिति से सहमति व्यक्त की।
हाईकोर्ट ने कहा, “जैसा कि यह विवाद पहले ही माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘राजेंदर कुमार जैन (सुप्रा)’ के मामले में तय किया जा चुका है, जहां मजिस्ट्रेट ही सक्षम अदालत है यदि संज्ञान लेने के बाद मामला उसके समक्ष लंबित है, भले ही अपराध सेशन कोर्ट द्वारा विचारणीय हो…”
कोर्ट ने आगे कहा कि “याचिकाकर्ता के वकील द्वारा उल्लिखित कार्यालय ज्ञापन भी यही कहता है कि जिस अदालत में मामला लंबित है, वह अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए सक्षम है।”
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि निचली अदालत का आदेश त्रुटिपूर्ण था, हाईकोर्ट ने माना: “ऐसी परिस्थितियों में, इस कोर्ट का विचार है कि निचली अदालत द्वारा पारित आदेश कानून की नजर में खराब (bad in the eyes of law) है।”
हाईकोर्ट ने निम्नलिखित आदेश पारित किए:
- दिनांक 13.08.2025 के आक्षेपित (impugned) आदेश को “रद्द (set-aside)” किया जाता है।
- “सक्षम अदालत” (मजिस्ट्रेट) को यह स्वतंत्रता दी जाती है कि वह याचिकाकर्ता की NOC अर्जी पर “तीन सप्ताह की अवधि के भीतर” एक नया आदेश पारित करे।
- निचली अदालत को यह भी “निर्देशित किया गया कि वह उक्त मामले को सुपुर्द (committal) करना सुनिश्चित करे।”




