इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में आरोपी को फंसाने की कथित साजिश की जांच के आदेश दिए

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में बलात्कार के मामले में आरोपी को फंसाने की साजिश के आरोपों की विस्तृत जांच के निर्देश दिए हैं। उमा शंकर यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (आवेदन यू/एस 482 संख्या 15281/2024) में न्यायालय के फैसले ने आपराधिक कार्यवाही में शिकायतकर्ता की पहचान और साक्ष्य के सत्यापन में गंभीर खामियों को उजागर किया है। न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल द्वारा दिए गए निर्णय में जाली दस्तावेजों और झूठी पहचान के माध्यम से न्यायिक प्रणाली के दुरुपयोग पर प्रकाश डाला गया।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला उमा शंकर यादव और अन्य के खिलाफ एक आपराधिक शिकायत से उत्पन्न हुआ, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376-डी और 506 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 की धारा 5 जी/6 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था। शिकायत एक कथित नाबालिग, “सिमरन” द्वारा दर्ज की गई थी, जिसने सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाया था। उसकी शिकायत के आधार पर, जालौन के अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश (POCSO) ने 7 मार्च, 2024 को आरोपी के खिलाफ समन आदेश जारी किया।

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हालांकि, आरोपी ने कार्यवाही को चुनौती देते हुए दावा किया कि शिकायतकर्ता मौजूद नहीं है और उसके आरोपों का समर्थन करने वाले दस्तावेज जाली हैं। आवेदक के वकील ने तर्क दिया कि कार्यवाही आरोपी को गलत तरीके से फंसाने के इरादे से गढ़े गए सबूतों पर आधारित थी।

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शामिल कानूनी मुद्दे

अदालत ने मामले से उत्पन्न कई प्रमुख कानूनी मुद्दों पर गहनता से विचार किया:

1. शिकायतकर्ता का अस्तित्व:

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या शिकायतकर्ता, “सिमरन” वास्तव में अस्तित्व में थी। उसके पते पर भेजे गए नोटिस अप्राप्त होने के कारण वापस आ गए, जिससे उसकी पहचान पर संदेह पैदा हुआ।

2. सहायक दस्तावेजों की प्रामाणिकता:

शिकायतकर्ता ने अपनी पहचान और उम्र स्थापित करने के लिए हाई स्कूल की मार्कशीट और आधार कार्ड प्रस्तुत किया था। जांच से पता चला कि दोनों दस्तावेज जाली थे।

3. न्यायिक प्रक्रियाओं में सत्यापन का कर्तव्य:

इस मामले ने शिकायतकर्ताओं और उनके साक्ष्य की प्रामाणिकता को सत्यापित करने में न्यायिक अधिकारियों और कानूनी सलाहकारों की जिम्मेदारी के बारे में चिंता जताई, खासकर बलात्कार जैसे गंभीर आरोपों वाले मामलों में।

4. कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग:

कथित जालसाजी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे न्यायिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग करके व्यक्तियों को परेशान किया जा सकता है या उन्हें गलत तरीके से फंसाया जा सकता है। अदालत ने इस तरह के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर जोर दिया।

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5. कानूनी पेशेवरों की जवाबदेही:

अदालत ने शिकायत और वकालतनामा दायर करने वाले वकील की भूमिका की जांच की, जिससे उनके द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले पक्षों की वास्तविकता सुनिश्चित करने के उनके कर्तव्य पर सवाल उठे।

अदालत की टिप्पणियां और निष्कर्ष

फर्जी दस्तावेजों और शिकायतकर्ता का पता लगाने में विफलता सहित साक्ष्य की समीक्षा करने के बाद, अदालत ने कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:

1. साक्ष्य का निर्माण:

हाईकोर्ट ने पाया कि आर्य कन्या पाठशाला इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल द्वारा सत्यापित शिकायतकर्ता की हाई स्कूल की मार्कशीट जाली थी। मार्कशीट पर रोल नंबर किसी अन्य छात्रा का था। इसी तरह, प्रस्तुत आधार कार्ड अमान्य था।

2. शिकायतकर्ता और गवाहों का पता न लग पाना:

शिकायतकर्ता और उसके गवाह कपिल सिंह चौहान और विजय कुमार का पता नहीं चल पाया। उनके पते गलत पाए गए।

3. गंभीर साजिश:

अदालत ने घटनाओं को “आरोपी को झूठा फंसाने और अदालत के मंच का दुरुपयोग करने की गंभीर साजिश” बताया। इसने शिकायत दर्ज कराने में मदद करने वाले कानूनी पेशेवरों सहित सभी शामिल लोगों की जवाबदेही की मांग की।

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अदालत के निर्देश

निष्कर्षों की गंभीरता को देखते हुए, अदालत ने कई निर्देश जारी किए:

1. पुलिस द्वारा जांच:

जालौन के पुलिस अधीक्षक (एसपी) को जालसाजी और साजिश में शामिल लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया गया। एसपी को वकालतनामा और अन्य अदालती दस्तावेजों पर शिकायतकर्ता के हस्ताक्षरों को सत्यापित करने का काम सौंपा गया।

2. न्यायिक जांच:

जिला न्यायाधीश, जालौन को धोखाधड़ी की कार्यवाही को सक्षम करने में न्यायिक अधिकारियों या अदालत के कर्मचारियों की संभावित भागीदारी की जांच करने का निर्देश दिया गया।

3. कार्यवाही पर रोक:

मामले की सभी कार्यवाही 20 दिसंबर, 2024 तक स्थगित कर दी गई।

4. रिपोर्ट प्रस्तुत की जानी है:

एसपी और जिला न्यायाधीश को अगली सुनवाई तक अपनी जांच रिपोर्ट हाईकोर्ट में प्रस्तुत करनी है।

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