इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि अदालती कार्यवाही के दौरान अपनी वास्तविक आय छिपाने के उद्देश्य से फर्जी या छेड़छाड़ किए गए बैंक स्टेटमेंट दाखिल करना ‘जालसाजी’ (Forgery) की श्रेणी में आता है। कोर्ट ने कहा कि ऐसा कृत्य न्याय की प्रक्रिया को दूषित करने का प्रयास है और यह कानून की गरिमा का अपमान है।
जस्टिस विक्रम डी. चौहान की पीठ ने धारा 482 सीआरपीसी (Cr.P.C.) के तहत दायर याचिका को खारिज करते हुए, धारा 466 आईपीसी (IPC) के तहत पति के खिलाफ जारी समनिंग आदेश (Summoning Order) को सही ठहराया है।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला गौरव मेहता और उनकी पूर्व पत्नी (विपक्षी संख्या 2) के बीच वैवाहिक विवाद से जुड़ा है। दोनों का विवाह 2004 में हुआ था और 2007 में तलाक हो गया था। इसके बाद, पत्नी ने अपने नाबालिग बेटे के भरण-पोषण (Maintenance) के लिए धारा 125 सीआरपीसी के तहत फैमिली कोर्ट में आवेदन किया था।
भरण-पोषण की कार्यवाही के दौरान, निचली अदालत ने 26 फरवरी 2019 को एक आदेश पारित कर गौरव मेहता को पिछले तीन वर्षों के इनकम टैक्स रिटर्न, बैंक खातों का विवरण और सैलरी स्लिप प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। इसके अनुपालन में, आवेदक ने वित्तीय वर्ष 2011-12, 2012-13 और 2013-14 के लिए अपने आईसीआईसीआई (ICICI) बैंक खाते का विवरण दाखिल किया।
फर्जीवाड़े का आरोप और पुलिस जांच
पत्नी ने आरोप लगाया कि कोर्ट को गुमराह करने और अपनी आय कम दिखाने के लिए पति ने जो बैंक स्टेटमेंट दाखिल किए, वे फर्जी थे। शिकायत पर पुलिस जांच की गई और बैंक से असली स्टेटमेंट निकलवाए गए। जांच में यह पाया गया कि कोर्ट में दाखिल किए गए स्टेटमेंट और बैंक के असली रिकॉर्ड में भारी अंतर था।
आरोप है कि पति ने जानबूझकर कई क्रेडिट और डेबिट प्रविष्टियों (Entries) को हटा दिया था ताकि उसकी वास्तविक वित्तीय स्थिति का पता न चल सके। इसके बाद, पति के खिलाफ धारा 466 आईपीसी (अदालती रिकॉर्ड की जालसाजी) के तहत आरोप पत्र (Charge-sheet) दाखिल किया गया और मजिस्ट्रेट ने 17 अक्टूबर 2019 को उसे तलब किया। इसी आदेश को चुनौती देने के लिए पति ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
कोर्ट में दलीलें
आवेदक (पति) का पक्ष: आवेदक के वकील ने तर्क दिया कि कोर्ट में दाखिल किए गए दस्तावेज बैंक स्टेटमेंट के केवल “अंश” (Excerpts) थे, न कि पूरा रिकॉर्ड। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के विमला बनाम दिल्ली प्रशासन (AIR 1963 SC 1572) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जालसाजी (Section 463 IPC) के लिए ‘बेईमानी’ या ‘कपटपूर्ण’ (Fraudulently) आशय होना जरूरी है, जिससे किसी को ‘दोषपूर्ण हानि’ (Wrongful Loss) हुई हो। चूंकि भरण-पोषण का मामला अंततः बेटे के पक्ष में तय हो गया था और पूरी राशि दी गई थी, इसलिए किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ।
विपक्षी (पत्नी) का पक्ष: पत्नी, जो स्वयं अपना पक्ष रख रही थीं, ने कोर्ट को बताया कि पति के इस आचरण के कारण भरण-पोषण का मुकदमा 10 साल तक खिंच गया। उन्होंने कहा कि पति ने जानबूझकर उन प्रविष्टियों को हटाया जिनमें दूसरे खातों में पैसे ट्रांसफर किए गए थे, ताकि कोर्ट को धोखा दिया जा सके।
हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी और विश्लेषण
जस्टिस विक्रम डी. चौहान ने दोनों पक्षों के दस्तावेजों का मिलान किया। कोर्ट ने पाया कि आवेदक द्वारा दाखिल स्टेटमेंट में से 18,000 रुपये से लेकर 2,00,000 रुपये तक की कई लेन-देन की प्रविष्टियां गायब थीं।
कोर्ट ने आवेदक के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह केवल “अंश” थे। कोर्ट ने नोट किया कि दस्तावेज पर “विस्तृत विवरण” (DETAILED STATEMENT) लिखा था और उस पर बैंक का लोगो भी था, कहीं भी यह नहीं लिखा था कि यह केवल एक हिस्सा है।
न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा:
“किसी भी अदालत में मुकदमेबाजी के दौरान, यह अनिवार्य है कि पक्षकार सही तथ्यों का खुलासा करें। यह न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखने के सिद्धांत पर आधारित है। वादियों से अपेक्षा की जाती है कि वे ‘साफ हाथों’ (Clean Hands) से अदालत में आएं। फर्जी दस्तावेज दाखिल करना इस सिद्धांत पर सीधा हमला है। यह एक झूठी वास्तविकता को सच के रूप में पेश करके अदालत को धोखा देने और न्याय के मार्ग को विकृत (Pervert) करने का प्रयास है।”
‘कपटपूर्ण’ (Fraudulently) शब्द की व्याख्या करते हुए हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि ‘धोखाधड़ी’ में केवल आर्थिक नुकसान शामिल नहीं है, बल्कि इसमें मन, प्रतिष्ठा या न्यायिक प्रशासन को होने वाली क्षति भी शामिल है। कोर्ट ने माना कि बैंक स्टेटमेंट से प्रविष्टियों को छिपाना प्रथम दृष्टया (Prima Facie) विपक्षी के भरण-पोषण के दावे को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया था।
फैसला
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि एफआईआर और रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री आवेदक के खिलाफ कार्यवाही शुरू करने के लिए पर्याप्त है। कोर्ट ने कहा कि समनिंग के चरण में मजिस्ट्रेट को केवल यह देखना होता है कि कार्यवाही आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार हैं या नहीं, न कि सजा के लिए।
तदनुसार, कोर्ट ने धारा 482 सीआरपीसी के तहत दायर याचिका को खारिज कर दिया और निचली अदालत के समनिंग आदेश को बरकरार रखा।
केस विवरण:
- केस टाइटल: गौरव मेहता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
- केस नंबर: एप्लीकेशन यू/एस 482 नंबर – 33209 ऑफ 2023
- कोरम: माननीय जस्टिस विक्रम डी. चौहान
- निर्णय की तिथि: 08 दिसंबर, 2025
- आवेदक के वकील: इशिर श्रीपत, सौरभ पटेल
- विपक्षी के वकील: अनामिका चोपड़ा (व्यक्तिगत रूप से), ओ.पी. द्विवेदी (ए.जी.ए.)

